आज परिसर के एक महिला छात्रावास में एक विशाल सर्प ने दर्शन दिया। आखिरी प्राप्त सूचना तक यह स्पष्ट हो गया था कि भ्रमण पर निकलने की यह युक्ति उसे काल के कपाल से ही ज्ञात हुई थी जिसने अंततः उसके काल-चक्र को काल के कर में ही त्याग दिया। बहुत सुखद मृत्यु तो नहीं कही जा सकती किन्तु यह अवश्य सिद्ध हुआ है कि प्रभु को क्षत्रियों वाली वीर-गति प्राप्त हुई है। आखिरी दम तक वे अपनी शान में धुत रहे तथा उनका खौफ तो उनके जाने के बाद भी बना हुआ है। उनके अनुमानित सहचरों की तलाश जारी है।
खैर जब देश में इतना कुछ चल रहा है तो मैं अपने मस्तिष्क की इस ओर बढ़ती उधेड़बुन को देखकर हतस्तब्ध हूँ। आखिर ऐसा क्या है इस घटना में जो यह इतनी आवश्यक प्रतीत होती है मेरी तूलिका की स्याही को कि ये मेरे हस्त-गर्भ की रगों के रक्तचाप को बढ़ाने को आतुर-सी जान पड़ती है?
अधिक ध्यान देने पर भी मुझे सूझ नहीं रहा। केवल इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यहाँ भी एक निर्दोष को दर्दनाक मौत के घाट सिर्फ इसलिए उतार दिया गया क्योंकि वहाँ व्याप्त आबादी को इसके होने मात्र से भय था। भय का समाधान भी कितना उचित चुना गया - सीधे प्रणाघात। अब प्रश्न यह है कि जो लोग इसे मारने में सक्षम थे, क्या उनमें इतनी कुव्वत नहीं थी कि वे इस निरीह जीव को कहीं बाहर छोड़ आएं? या इतना ध्यान दे दिए होते की वो प्रविष्ट ही न हो? या कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्होंने अपने सहकर्मी, अधिकारी, भार्या, नौकरी, मक्कारी, कामचोरी आदि की नकारात्मकता का ठीकरा इस बेचारे के सिर फोड़ दिया? या फिर स्वयं तो लक्षमण नहीं बन पाए पर, अब आवेश में आकर अक्षयकुमार की तरह शत्रु को ललकार दिया एवं अरि को हावि होता देख आनन-फानन में भुजंग के साथ अपने मानवीय-अस्तित्व का भी ह्रास किया?
इस निकृष्ट-कार्य के कारणों में कई संभावनाएं व्यक्त की जा सकती हैं किंतु एक निर्बल की हत्या का यथार्थ तथा उसके पश्चात किये गए उपहास की निर्लज्जता को किसी भी रूप में ठुकराया नहीं जा सकता। उच्चतम शिक्षा के संकुल में इस दुर्घटना का घटित होना हमारी अमावस्या को और अंधकारमय दिखाता है।
मैं स्वयं भी इस मत का हूँ कि इंसानी-परिवेश में एक विषधर का रहना किसी के हित में नहीं है। परन्तु, मृत्युकाण्ड लिख देना भी तो अनुचित है। भूलिये मत ये हमारे महादेव के कंधों पर विराजमान होते हैं। भगवन से जब प्रेम है तो उन्हें क्यों अवसाद का भोग लगाना। हो सकता है आप सब किसी अन्य विचारधारा से मंत्रमुग्ध हों लेकिन जीव-हत्या का अधिकार आपको किसने दिया? वे शास्त्र या वे लोग जिनकी आप अक्सर दुहाई दिया करते हैं वे भी तो अभयदान की बात करते हैं, आघात की नहीं। पर, आपलोग तो दिन-ब-दिन पाप की पराकाष्ठाओं को छूते जा रहे हैं। कभी निर्भया, कभी निरीह, कभी निर्लज्ज, कभी अबला। आप तो इंसाफ़ और मानसिक शुद्धिकरण के नाम पर शारीरिक बर्बरता पर उतर आ रहे हैं। यह गलत है।
किसी महान व्यक्ति ने कहा है - "प्राण देता है भगवान, बचाता है वैद्य और प्राणों की रक्षा करता है क्षत्रिय।"
सो आज मैं राम के विचारों की लौ में प्रकाशवान उन सभी क्षत्रियों को आवाज़ देता हूँ कि वे अपनी आंतरिक सुशुप्तता त्यागें तथा सबको साथ लेकर उन निश्छल-निर्बलों को रक्षित करें जो आज भी उस ईश्वर की ज्योति को अपने भीतर समाहित रखे हैं।