शाम हो चली थी। सर सुंदरलाल अस्पताल परिसर का माहौल भी लौटती सविता के आलोक में खिन्न आकाश का प्रारूप दिखा रहा था। अधिकतर कर्मचारी आठ बजे की अपनी कार्मिक-पाली के अंत की आस में घड़ी को देख आहें भर रहे थे। मरीज़ एक और दिन यहाँ के अस्वच्छ बिछौने पर कूल्हे टिकाये मज़बूर पड़े थे। सभी अपने मन के किसी कोने में चिकित्सकों की सात बजे वाली गश्त में स्वयं की रिहाई की प्रार्थना कर रहे थे। परिजनों के मध्य आपाधापी अपने चर्मोत्कर्ष पर पहुँचने को थी। उनके मुखपर डॉक्टरों के लिए व्याप्त शुद्ध बनारसी उद्गार ये प्रदर्शित करते हैं कि परिसर में काम अवश्य हुआ है। बनारस में शब्दों को नहीं, ज़िक्रों को महत्व दीजियेगा। तल्लीनता हालिस होगी।
ख़ैर, इस उदासीन-आलस भरे वातावरण में एक सफ़ेद अचकन की स्फूर्ति सबका ध्यान आकृष्ट कर रही थी। महिला एवं प्रसूति वार्ड में कॉलर पर परिश्रावक टिकाये डॉक्टर कारुणि आज अपने उत्साह पर वारी जा रही थी। शीघ्रता से उसने बाँये हाथ की सूची देखी। तेइसवाँ बिस्तर था यह। दीवार पर ठीक सामने अंकित वही संख्या उसकी इस हरकत से खिलखिला उठी। शायद उसे इस हड़बड़ी का राज़ ज्ञात हो गया था।
चौबीसवीं मरीज़ की स्थिति आज काफी बेहतर थी। उनकी गर्भाशय सर्जरी परसों हुई थी। उसे याद आया कल तो दर्द से ये चीखें ही जा रही थीं। किन्तु मानना पड़ेगा इनके साथ खड़े बच्चों को भी।
" उन्होंने मुझे भी इनके साथ एक वयस्क परिजन की कमी नहीं खलने दी। याद है जब उन्हें उठना था तो उनके बेटे ने कितनी सफाई से कन्धों को टेक दी। मानो एक आह! नहीं आती कि सबकी आँखें भारी हो जातीं।", डॉक्टर अनामिका ने सुबह-सुबह ये कहा था।
बाद में वैभव ने बताया कि वे सब उनकी बेटी के दोस्त थे। वो स्वयं किसी परीक्षा के सिलसिले में बाहर थी। अच्छा परिवार है इनका।
" सिस्टर! सिस्टर! तनी हमे बोखार बदे कुछ दे देतु।"
सामने खड़े परिजनों में से एक की कर्कशाहट ने कारुणि के अंतर्ध्यान को तोड़ा। प्रसन्नता की इस कहकशाहत में भी उसका क्रोध शांत नहीं रह सका। इतनी बेड-संख्याओं के बीच पान खाने की सज़ा की आड़ में उसने उस महिला को फट्कार कर बाहर कर दिया। " डॉक्टर और नर्स में बहुत फर्क है। न जाने ये गँवार कब समझेंगे। बड़ी आयी सिस्टरवाली।" उसने मन में सोचा। फिर चहकते हुए आगे बढ़ गयी जैसे कुछ हुआ ही न हो।
कोई और दिन होता तो बात अवश्य बढ़ जाती। शायद पूरे दिन का काम भी रुक जाता। परन्तु आज कोई साधारण दिन नहीं था। कारुणि इस दिन के इंतज़ार में न जाने कितने सपने न्योछावर कर चुकी थी। आज रात की गाड़ी से विवेक वापस आ रहा था। ' इंटेलीजेंस ब्यूरो वाले भी न जाने किस घाट के कीचड़ हैं। नौकरी के नाम पर बेचारे को कहीं भी जमा देते हैं। न जान की चिंता, न कल की फिक्र। ये भी तो ड्यूटी के लिए हमेशा आगे रहता है और यहाँ अगले सम्पर्क तक मेरी सांसें अटकी रहती हैं।'
ख़ैर, उसने अपनी इस स्थिति का फैसला स्वयं किया था। पिताजी के उस फोन से लेकर आजतक उसने इसका अफ़सोस नहीं किया। फिलहाल विवेक के आने से पहले उसे तीन बार साफ किये जा चुके घर में पुनः एक चक्कर झाड़ू का देना था। उसने आने से पूर्व ही गाजर का हलवा और बनारसी दम आलू तैयार कर लिए थे। उन्हें बस मक्के की रोटी के साथ गर्म करके परोसना रह गया था। फिर तो सिर्फ राधा के आँखों की चमक थी और कृष्ण का खाली पतीला।
अब तक वो तीस का आँकड़ा पार कर चुकी थी। बाकी लोग भी मौसम का लगभग सही अनुमान लगा चुके थे। शायद यही कारण था कि डॉक्टर के निरीक्षण पर होते हुए भी हवा मानो फाग की बह रही थी। सभी को सर्द की गलन से ये बदलाव अधिक भा रहा था। इसी लचीलेपन में एक बच्चा बत्तीसवें बिस्तर से सटे विशेष कक्ष की चौखट पर छूट गया था। नये परिजन इस बात को जान लें कि इस अस्पताल में संक्रमण को ध्यान में रखकर बच्चों के लिए कुछ कड़े नियम हैं जिनकी अवमानना पर अधिकारी से प्रसाद प्राप्त होता है। आज न जाने किसका पर्चा कटा था।
कारुणि ने बच्चे की ओर नज़र घुमाई पर किसी को आगे बढ़ते न देख वो समझ गयी, " ये निश्चय ही नन्दा जी के साथ होगा।" नन्दा जी को इस बार विशेष कक्ष प्रदान हुआ था। वे उम्मीद से थीं तथा दो-तीन दिन ही शेष रह गए थे उनके प्रसव को। उसने देखा वो बच्चा आँख बंद किये कुछ बड़बड़ा रहा था। राजबन्धु मिष्ठान के राजभोग के जैसे उसके गालों और उसके मासूम चेहरे ने डॉक्टर को अपनी ओर खींच ही लिया।
कारुणि ने उसके घुंघराले बालों पर हाथ फेरते हुए पूछा, " क्या हुआ गोलू? किससे बात कर रहे हो?" उसने जो उत्तर दिया उसे सुनकर कारुणि अंदर तक हिल गयी। आश्चर्यजनक था यह देखना कि कैसे एक अबोध बालक की बातों ने एक परिपक्व वयस्क के हृदय को छलनी कर दिया। उसके शब्द-शूलों ने उसके एक पुराने कर्क पर वार किया।
उस रात कारुणि घर नहीं गयी। उधर भारतीय रेल की पुरानी आदत ने विवेक को भी पटरियों पर ही अटकाए रखा। अपनी मेज़ की दीवार के पीछे अपनी उँगलियों को आपस में उलझाए वो बुत हो गयी। कहीं तरुणाई की लपट पर किसी ने दोबारा जल छिड़क दिया था।
उस बच्चे ने अपनी माँ की वाणी दोहराई थी।
" हमें बेटी नहीं चाहिए। बेटा अगर मनमानी भी करेगा तो लौटकर घर ही आएगा।"
- सुखदेव।
Very nice story with very beautiful language... You must keep doing it...
ReplyDeleteWe all support you.
Thanks man...Every pen aspires for an avid reader.
ReplyDeleteदिन प्रतिदिन गहराइयों को छानने की गुणवत्ता बढ़ती जा रही। बहुत सही दोस्त 👍
ReplyDeleteआभार मित्र।
DeleteGood
ReplyDeleteThanks
DeleteWell done..ur effort is commendable..great start.👏👏👍👍
ReplyDeleteThank you so much...
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ReplyDeleteऐसा लगा मानो मुंशी जी को पढ़ रहे हों।
ReplyDeleteस्नेह।