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Sunday, 11 November 2018

अस्पष्ट दर्शन

भरत खंड के भारतवर्ष के वर्तमान स्वरूप में बिहार रूपी राज्य व्याप्त है। जो नहीं जानते वो इसे इस बात से समझ सकते हैं कि बिहार, भारत के लिए वही है जो किसी मुस्कान में दीप्ति होती है। अति-सौभाग्यशाली होना पड़ता है उसे बूझने हेतु। बिहार के बारे में एक खास बात और है। आप जिस ओर से भी इसकी सीमा में प्रवेश करेंगे आप एक ऐसे वासु को पार करेंगे जो आपके नए जन्म का द्योतक होगा। उदाहरण स्वरूप, अगर आप बिहार की दक्षिण-पश्चिमी सीमा को लांघेंगे, तो आपको कर्मनासा नदी डाकनी होगी। जैसा कि इसके नाम से विदित है, यह आपके कर्मों की फेहरिश्त को समेट के रख देती है। आपको शून्य से पुनः प्रारम्भ करना होगा। इसी प्रकार अगर आप इस मार्ग से विदा ले रहें हों तो भी आपको यहीं अपनी सूची डुबोनी होगी। अतः गर कभी आप इस दीप्ति की असल सीमा को समझने के लिए इच्छुक हों तो इसी गुण वाले साक्ष्य की तलाश कीजियेगा अपने समक्ष उपस्थित लकीर में। शायद यह कर्मों के पुनर्जन्म का ही फेर है कि कर्तव्य को मोह से ऊपर रखते हुए ये बिहारी गृह के ज़िक्र से भी दूर मानव-सभ्यता के उत्थान में अपना सहयोग दे रहे हैं। कभी-कभार लाँछन भी लगाए गए हैं इनपर, तो उसके उलट अक्सर प्रशंसा की चाश्नी में उतारा भी गया है। कभी अपनी कर्मभूमि को सेवा देने का हक़ छीना भी गया है, तो अक्सर अपनी निर्लज्ज त्रुटियों के सुधार के हेतु इनकी बेबाक सहायता भी ली गयी है। परन्तु, सभ्य-समाज के इतिहास में शायद ही कभी इस वर्ग ने अपने कर्तव्य पर दूसरों के कुविचारों की धूल टिकने दी हो। आवयकता पड़ने पर इसी वर्ग ने खुशी-खुशी अपने देश, अपनी ज़मीन के लिए अपनी जान लुटा दी, अपनी अस्तित्व को ख़ाक में मिला दिया और वक़्त की गुज़ारिश पर नए सृजनताओं की पराकाष्ठा से भी सरोकार कर लिया। देश हो या विदेश, राजनीति, शिक्षा, कला, भाषा, रक्षा, विज्ञान, सिनेमा, खेल, आदि मानवीय गुणों में एक समेकित उत्कृष्टता भी प्राप्त की है इन्होंने। कुछ राहु काल भी इनके चन्द्रमा पर ग्रहण दिखाते हैं किंतु इनकी नेकी ने ही रश्क-ए-मिजाज़ी के रास्ते अवरोधों को न्योता दिया है। इनकी विविधता तो आज भी एक बड़े तबके की समझ से परे है। एक पुरानी कहावत हमें यह स्पष्ट करती है कि यहाँ एक कोस पर भाषा और तीन कोस पर पानी में बदलाव हो जाता है। ज्ञात हो, यहाँ की लोक-पद्धति में व्याप्त विवाह-संस्कार के परिछन रस्म का एक गीत "चलनी के चालल दुलहा..." को हम कम-से-कम बत्तीस क्षेत्रीय भाषाओं में गा सकते हैं। सुनने की कला पर तो अकेले श्रोता का अधिकार होता है। इस विविधता में भी यहाँ के समाज ने कुछ सदियों के भीतर ही अपनी संस्कृति को केवल भक्ति से, ईश्वर-अल्लाह संस्कृति में सहर्ष स्वीकार कर लिया। जगत की आबादी जहाँ पूरी क़ायनात को द्विरँगी करने के लिए जूझ रही है, यहाँ के निरीह कामगार हर एक रंग की पुष्प-माल, संग अपने भाल आज भी जगतजननी को अर्पित करते हैं। अबकी जब पर्यावरण और महिलाऐं विश्व-पटल पर अपने हिस्से की वायु के लिए भी संघर्ष कर रही हैं, यहाँ ऐसी खबरों पर उबासियों का सिलसिला आम है। हो भी क्यों ना, इन्होंने पुरुष, पर्यावरण और पत्नी ( इसका सरलतम अर्थ न मान लेना। आगाह कर देता हूँ मैं। ) को कभी अलग कर देखा ही नहीं। जिसकी साया में जिसकी काया से जन्म लेकर सब कुछ सीखा, उसकी अस्मत पर आँच नहीं आने देते ये लोग। अफ़सोस यह भी खटक जाता है कइयों को। ख़ैर अब आप ज़रा गौर फरमायें। क्या ध्यान से देखा जाए तो कश्मीर में दिल्ली में बैठे हुक्मरानों के चेहरे की नाक बचाते हुए, अपने ही राष्ट्र की बहकी हुई जनता के हाथों जान गंवाती, घायल होती हमारी सेना भी अपने आप में किसी बिहार से कम है? उसका भी अपना युवक जब अपनी जीवन-रागिनी से विदा लेकर तबादले वाली जगह के द्वार पर अपने कर्मों को नासते हुए अगले वर्ष, पुनः उसकी आँखों की नमी में अपना अक्स देख पाने की कामना लिए आगे बढ़ता है। क्या वो उस वक़्त अपने गृह से दूर, अपनी तक़दीर से जूझता एक मुस्कान समेटे, हार-हीन तस्वीर बनाये रखने के लिए प्रण नहीं कर रहा होता? वही नहीं हमारे देश के ही किसी जंगल में जीवन जीने को लालायित राष्ट्रीय पशु व्याघ्र का कुटुम्ब भी तो किसी बिहारी की तरह ही कर्तव्य की राह पर दर-दर भटकता, पग-पग सँवारता अपने प्रभु की शरण में जाने से पूर्व, अपने हिस्से में आई उनकी अभिलाषा को साकार करता उम्र और मानवीय क्रूरता के पड़ावों को पार करता है। धन्य हैं हम भी जो अवनि के माध्यम से हमने इनके समक्ष उनके ऊपर लगने वाले आदमखोर जैसे मानुषिक स्वार्थ और आलस्य जनित बट्टों का भी ख्याल करने की नसीहत दे दी। इन सब के ऊपर एक और चीज़ है जो इस त्रिमूर्ति को एक सूत्र में पिरोती है - छठ।
छठ पर्व में हम डूबते सूर्य को अर्घ देते हैं। उसी तरह जैसे बिहार के गाँव आज भी हम अपनेपने बुज़ुर्गों को सम्मान बख्शते हैं। या सेना के जवान तिरंगे की लाज के लिए अपना अंशुमाली तक अस्त कर देते हैं, पूरे गर्व के साथ। या ये धार्मिक बाघ जो मृत्यु को प्रतिष्ठा प्रदान करने हेतु देवी दुर्गा की सवारी को विराम दे, इस मर्त्य-लोक में जन्म लेते हैं।
ये बिहारी, ये जवान, ये व्याघ्र और ये छठ; थामे हैं हमें।

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