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Friday 26 October 2018

प्रकृति की द्युति

क्यों पेड़ काटने की खातिर,
तू जन-जन में अलख जगाये।
मानो लूटने पाण्डु-पुत्रों को,
मामा शकुनि जी खुद आये।

वो जूए का लिए बहाना,
राजसभा में गये समाये।
आसन पाते ही मातुल के,
कुंती-तनुज गए चकराए।

सभी सुतों पर छाते ही वो,
नीच सोच पर उतरे आये।
बोलै पाँचों को उकसाकर,
क्यों ना सब पर खेली जाए?

काल का देख के आगत रंग,
मामा मन ही मन हर्षाये।
क्यों ना इसी बहाने इनसे,
प्रतिष्ठा भी छीनी जाए।

भँवर में घिरकर उनके आखिर,
नाँव-पाण्डवी गोते खाये।
फँस उनकी चालों में "धर्मी",
पत्नी पर दी चाल गँवाये।

हुई यही सबसे बड़ी गलती,
हक़ इसका वो कैसे पाएं?
एक नारी के नारीत्व पर,
कैसे कोई भी दाँव लगाए?

गयीं घसीटी वहीं थी देवी,
भीम से भी ना देखा जाए।
शान्त रह गए सहदेव-नकुल भी,
अर्जुन भी बैठे आँख चुराए।

टूट चुकी उस अबला ने फिर,
हार के अपने हाथ उठाये।
तब आकर बंशीधर ने फिर,
पट के झटपट पाट बढाये।

किसी तरह जा बची बेचारी,
जो सबकी ताकत कहलाये।
अंत मे वो ही धूमिल होती,
जाने क्यों बेचारी हो जाये?

सोच ज़रा इसपर ओ भईया!
ऐसे कैसे काम चलाएँ।
आज तो जैसे द्रुपद-सुता-सी,
माता धरती भी चिल्लाये।

हम जैसे निष्प्राण जनों में,
मैय्या अपनी आस जगाये।
शायद कभी उठेंगे हम भी,
देंगे उसका चीर बढाये।

इतने लगा दें दरख्तों को कि,
चहुँ ओर हरियाली छाये।
लेकिन कहाँ हुआ ऐसा कुछ,
हम बैठे जो शीश नवाये।

हाथ जोड़कर करें विनतियाँ,
उनसे जो हँसते ही जाएँ।
"क्यों बनकर तुमहीं दुस्साषन,
वसन पे उनके आँख गड़ाए?"

वो अवनि, बहना बन अपनी;
या भाभी बन बाहर जाए।
दादी-सी झुकती-रुकती या,
सखियों-सी चलती इठलाये।

उसपर तेरी काली छाया तब,
मौत-सी पीछे ही मंडराए।
हम जैसे लाचार जवाँ तब,
कपड़ों में ही दोषों को पाएँ।

क्या ये तरु भी इस तरुणी की,
अबतक अस्मत नहीं बचाये?
फिर काहे तू बूझ-समझकर,
पाप करने को आगे आये?

भूल नहीं इन वृक्ष-पात ने,
हैं सदियों से लाज बचाये।
तेरे भ्रात-तात, जननी-पत्नी को,
शौचालय अब जाकर भाये।

कैसे इतना निर्लज्ज होकर,
देगा तू इनको कटवाए?
जबकि सारी तनुजाओं के,
वस्त्रों का तू प्रहरी कहलाये।

सो अपना जब समय आ रहा,
क्यों ना तुझसे प्रायश्चित करवाएं।
तेरी इन बेड़ियों से सबको,
क्यों मुक्ति दे दी ना जाये।

तू ही है जो अरावली के जख्मों पर,
दिया था परिसर में मुस्काये।
और नदियों को जोड़, रुला कर;
रहता सुरा में सदा नहाये।

तूने ही गाँधी विहार में,
सत्य दबाकर, घर बनवाये।
या भट्टा परसौल में जाकर,
रुपयों से मुजरे करवाये।

तूने ही गंगा-जमुना को,
नालों-से चेहरे दिलवाये।
दक्षिण में कावेरी पर भी,
तूने हीं झगड़े करवाये।

तूने ही तो महँगाई में,
कृषकों के सपने जलवाए।
रोते नन्हें हाथों में भी,
भिक्षा के लोटे दिलवाये।

गाज़ीपुर में भी तूने ही,
कूड़े के पर्वत उठवाए।
जैसे तेरा काम यही हो,
मंगल में दंगल करवाये।

लोकतंत्र में बैठे-बैठे,
जनता का बस ध्यान बंटाए।
और समय पाते ही झट से,
पर्यावरण पे दहशत ढाये।

क्या लगा तुझे, तू ऐसे ही;
अविरल धुन में बढ़ता जाए।
कोई तुझे देखे भी ना,
कोई उंगली भी उठने ना पाए।

माना है काफी सफल रहा तू,
पर बात यहाँ से बिगड़ी जाए।
तेरी उम्मीदों पर जल मढ़ने,
हैं कुछ उन्मत्त आगे आये।

तुझसे तो हमीं टकराएंगे,
जो मूल्यों के अब भी गुण गायें।
तेरी सन्तानों को ही शिक्षित कर,
तेरे कर्मों को देंगे बहवाए।
                                     - सुखदेव।

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