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Saturday, 29 September 2018

स्त्री का दर्द-6- रजोनिवृत्ति

एक दिन मैं भी रुक जाऊँगी,
चलते-चलते थक जाऊँगी।
क्या तुम होगे साथ मेरे तब,
जब मैं चल भी ना पाऊँगी।

हामीं जो भर दी है तुमने,
क्या सच में बात निभाओगे?
या मायावी छाईं-सा,
उस पल ग़ायब हो जाओगे।

छोड़ो उतना जाने भी दो,
थोड़ा पहले आ जाओ तुम।
बस उसी पड़ाव पर साथ निभाना,
जब संग अधेड़ हो जाना तुम।

वो ऐसा वक़्त जब मैं खुद भी,
झुकती-हाँफती-सी आऊँगी।
कुंतल की कालिमा केवल,
अक्सों में अधरंगी ही पाऊँगी।

जो शांत अभी हूँ, उस पल तो;
अक्सर क्रोधित हो जाऊँगी।
धैर्य भी थोड़ा दूर रहेगा,
मैं शंकित होती जाऊँगी।

अश्रु की झाड़ियाँ भी मेरी,
थोड़ी लम्बी करती जाऊँगी।
और भावों की कन्दरा क्यों जाने,
कुछ संकीर्ण दिखलाऊँगी।

कार्य सभी तब तत्परता के,
आफ़त जैसे लहराऊँगी।
और जो पूर्ण नहीं हुए फिर तो,
मैं गफ़लत में फँस जाऊँगी।

"दीना" की आँखों को भी तो,
शायद पहचान न पाऊँगी।
पर एक बार जो झेल गयी सब,
मैं सुगम-सुदृढ़ हो जाऊँगी।

छोटी-सी बातों पर भी,
जो मैं कुपित हो जाऊँगी।
क्या तुम वो सब भी समझोगे,
जो मैं बतला ना पाऊँगी।

देखो कोई इसमें मेरा हाथ नहीं,
यह भी निर्माण ज़रा-सा है।
इन बदलाव की कड़ियों में कुछ,
अंश प्रभु का धरा-सा है।

जब रुक जाएँगी वो तकलीफें,
शायद उससे कुछ हो आराम।
पर फिर वो एहसास न होगा,
जो हर बार है करता त्राहिमाम।

मैं हरपल लड़ते आयी हूँ,
उम्मीद है वो सह जाऊँगी।
रिश्तों में कुछ पद बढ़ेगा,
मैं बहु से सास हो जाऊँगी।

बस तुम जो मेरे पास रहोगे,
मैं खुद को सुलझी पाऊँगी।
ओ मनके! मेरे हृदय-गर्भ के,
तेरे साथ से मैं तर जाऊँगी।
                      -  सुखदेव।

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