प्रणय-सूत्र में पिरो-पिरो कर,
उसने मुझको लूटा था।
मैं तो बस चुपचाप पड़ी थी,
जब ये मेरा दिल टूटा था।
आशाओं की नैया में तब,
छिद्र-छिद्र ही छूटा था।
सारे रिश्ते दूर खड़े थे,
जब वह वहशी टूटा था।
शर्मायी-सकुचाई-सी मैं,
उसका व्यभिचार ही फूटा था।
भावों को कोई जगह ना मिली,
करम हमारा फूटा था।
अहो मनके! तुम देख सको तो,
बूझो क्यों "मन" टूटा था?
वधु हुई जो वैसे वर की, मेरा;
सत्य भी जिसको झूठा था।
मेरी शुचिधर-काया मलिन की गई,
तन विधियों से उसका धूता था।
अब प्रणय ना रहा, "सूत्र" छिन्न था;
बस, अंश शिशु-सा छूटा था।
- सुखदेव।
No comments:
Post a Comment