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Tuesday, 25 September 2018

स्त्री का दर्द-5- महावारी

अहो मनके! तुम कहते हो कि,
चाँदनी होना है आसान।
कहो भला क्या सह पाओगे,
हर एक माह अवसान?

भले सदा ही मदमाती है,
चेहरे पर मेरे मुस्कान।
पर मेरा अंतर ही जाने,
खिंचता रहता जो दर्द कमान।

तुमको क्या बस निकल पड़ो,
जहाँ भी ले जाये सम्मान।
मुझको तो सालों भर ही,
तारीखों का रखना पड़ता ध्यान।

बहुत हुआ जो तुमको शायद,
जानी पड़ जाए वही दुकान।
मेरा क्या? जब ग़लती से भी,
थैले से दिख जाए "सामान"।

जिसमें मेरा अधिकार ही नहीं,
जो ईश्वर की देन तमाम।
इसको भी क्यों इतना निम्न,
देखे वो मन्दिर का भगवान?

कहते हो तुम नया सृजन है,
प्रकृति का सार्थक निर्माण।
क्यों तुम ही इसे न धारण कर लो,
और रक्खो सृजनता का सम्मान।

क्यों मुझे ही हो यह सब दिखलाते,
तुम मानव में पुरुष-प्रधान।
और जब इसमें तुम्हारा हाथ ही नहीं,
क्यों करते हो जारी रहते फरमान?

मुझको पीड़ा का नहीं भय,
उसे सहने का शायद अभिमान।
पर कौन तुम्हें यह हक़ देता है,
करो हमारा इससे नुकसान।

नहीं ये बेड़ी पग-बाधा-सी,
समझो बस एक सरल प्रमाण।
अबला के अबला होने की,
शुचितापूर्ण ही तू इसको जान।

कामाख्या देवी का जैसे,
हो पूजते तुम रक्त-दान।
थोड़ा वैसे ही इसे भी समझो,
जो दे जाए एक नया प्राण।

सो चुप भी रहो अब बन्द करो,
अपना ये अविरल-व्यर्थ उदान।
तानों-बानों से नहीं रुकेगा,
मेरे सपनों तक मेरा उत्थान।
                         - सुखदेव।

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