संघर्षों के मदिरालय में,
सबसे सस्ता जो जाम उठा।
द्रवित हुआ मन पूछता है,
क्यों उसपर तेरा नाम उठा?
सभी अधम थे, सभी नीच भी;
सबपर दुष्कर ने राज किया?
फिर भारी सभा में बैठे ही,
क्यों सब ने ऐसा काज किया?
तुम शुचिधर-सुंदर, थी सुशील;
इस पर चंचलता बनी कील।
हुआ सूर्यपुत्र का भी छन्न शील,
वह स्वर्ण आर्य वहाँ हुआ नील।
जो दुष्ट अनुज ने केश तुम्हारे,
खींच तुम्हें झकझोर दिया।
तुम करती भी क्या जब भरी सभा ने,
मुख इस दुष्कर्म की ओर किया।
वहीं तुम्हारे धर्मराज थे,
वहीं था तेरा निश्छल साईं।
वहीं बगल में प्राण-नाथ भी,
वहीं थे दोनों कोमल भाई।
वहीं थे सारे परम-प्रतापी-
पराकाष्ठा-पर के पैर।
वहीं सन्न था परशु-शिष्य,
बाँधे अपने अंदर बैर।
सारे तो थे बौराये-से,
धर्म-द्युति परवान चढ़ी।
उन सब में बस वही एक था,
जिसने बदले में शान गढ़ी।
तुम बोलो अब करती क्या,
जब ऐसे वीर पड़े मजबूर।
जिन्हें प्रतिकार की चाहत थी,
वो अंतर में थे होते चूर।
ऐसे में तुमने प्रभु बुलाकर,
था अच्छा-सा काज किया।
उनकी महिमा की छाया में ही,
तुमने आखिर तक राज किया।
क्या हक़ था तब परमपूज्य को,
जिससे वो तुम पर चाल चले।
क्या मानु! वो शैशव में;
थोड़ा-सा जैसे बहक गए।
कब तक नारी, हे शशिप्रभा!
कुछ पन्नो-पत्रों में तोली जाएगी?
कब तक आएगा वो समय कि जब,
दुनिया उसका सच्चा मोल समझ पाएगी?
हो रामराज में सीता माँ,
या द्वापर में हो द्रौपदी।
या कलियुग में निर्भया,
क्यों अबला पर ही ज़िद गुज़री?
ये बातें जो थर्राती हैं तुरंत,
देती हैं सीख महत्वपूर्ण अत्यंत।
उस पुरुष रूप के राक्षस का,
केवल माँ अम्बे, करती हैं अंत।
- सुखदेव।
No comments:
Post a Comment