रात चाँदनी रही,
बात चाँदनी रही।
भले ही काल, काल हो;
साथ चाँदनी रही।
सदैव ही निकट रही,
चाँदनी लिपट रही।
वो हर घड़ी अतीत के,
प्रेम में सिमट रही।
परंतु व्यर्थ ही रही,
कभी निरर्थ भी रही।
वो सोच से गिरों के बीच,
सदा "अनर्थ" ही रही।
बदन के मार सह रही,
वो रोज़ हार सह रही।
कुल-निर्लजों के हाथ,
"निज-उद्धार" सह रही।
थी जानती नहीं रही,
थी मानती नहीं रही।
मनो-वियोग में भी थी,
रार ठानती नहीं रही।
वो शांत भी बनी रही,
प्रशांत भी बनी रही।
वो आग के स्पर्श पर,
अशांत भी बनी रही।
वो देखती ही रही,
वो सेंकती ही रही।
घोर अत्याचार में,
वो माथ टेकती रही।
प्रभु को पूजती रही,
ख़ुदी से जूझती रही।
वो पूर्व-प्रीत-मोह में,
ज़वाब ढूँढती रही।
वो अब नहीं चपल रही,
न सोच में सरल रही।
वो एक घाट बाद से,
स्वभाव में गरल रही।
वो अंत तक सबल रही,
कभी नहीं अबल रही।
सुता के हित जो बात थी,
सदा ही वो प्रबल रही।
- सुखदेव।
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