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Saturday, 22 September 2018

स्त्री का दर्द-1- हिय-कसक

अकेले हम भी रहते हैं, अकेले तुम भी हो रहते।
बग़ावत हम भी करते हैं, बग़ावत तुम भी हो करते।
समय की आँधियों में जो, चला करती हवाएँ हैं;
अकेले हम भी सहते हैं, अकेले तुम भी हो सहते।

शराफ़त हम भी रखते हैं, शराफ़त तुम भी हो रखते।
नज़ाकत हम भी रखते हैं, नज़ाकत तुम भी हो रखते।
परंतु, गैरों के उलाहनों से बचने की कवायद में;
हिफाज़त हम भी करते हैं, हिफाज़त तुम भी हो करते।

शरारत हम भी करते हैं, शरारत तुम भी हो करते।
हरारत हम भी भरते हैं, हरारत तुम भी हो भरते।
छिपी दुनिया की गद्दारी में, डूबी मुस्कुराहट में;
बनावट हम भी धरते हैं, बनावट तुम भी हो धरते।

ये चाहत हम भी रखते हैं, ये चाहत तुम भी हो रखते।
विरासत हम भी रखते हैं, विरासत तुम भी हो रखते।
ओ मनके! बीतती बातों की जलती-सी चिताओं में,
तिजारत हम भी रखते हैं, तिजारत तुम भी हो रखते।

हिमायत हम भी रहते हैं, हिमायत तुम भी हो रहते।
हिमाकत हम भी रखते हैं, हिमाकत तुम भी हो रखते।
भले ना उम्मीद हैं, पाने में हम दोनों हीं;
मोहब्बत हम तो करते हैं, मोहब्बत तुम नहीं करते।
                                                         - सुखदेव।

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