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Tuesday 14 April 2020

इस कर्म-युग में


मैं हार गया हूँ अपनों से।
अपने ही सपनों से।
इन साँसों की कड़ियों की,
मुस्काती लड़ियों से।
मैं हार गया हूँ अपनों से।

मेरा यह अंतहीन समाज,
रह गया हीन बस आज।
रण में बचाव की एक ही छत,
कर रही वितान को आगाज़।
मैं टूट रहा इन कथनों से।
मैं हार गया हूँ अपनों से।

न जाने किस कुंठा का सार,
 पर झुके-झुके परिवार,
मेरी रामायण का धोबी बन,
कहाँ तक गिरेगा ये संसार।
अब ऊब के इन सब व्यसनों से,
मैं हार गया हूँ अपनों से।

जब राम गमन-वन को जायें,
क्यों कैकयी सिया को तड़पाये?
रावण-हरण भी लघु दिखे जब,
श्री जटायु कुटुम्ब देख थर्राए।
हनुमन्त मौन अब जपनों से।
मैं हार गया हूँ अपनों से।

ये प्रश्न मेरा कोई ले जाये।
प्रभु के कर्ण पठा आये।
लखन-भरत जब शांत रहे,
सीता को संग क्यों ना लाये?
मैं दब-सा गया इन प्रश्नों से।
मैं हार गया हूँ अपनों से।
                      - सुखदेव।

2 comments:

  1. इसमें आज के परिवेश में टूटते बन्धन और अपनी ही संस्कृति से दूर होने के परिणाम को स्पष्ट देखा जा सकता है |

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  2. मर्म है यथार्थ का, ये दर्द है चरितार्थ का।

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