भारतीय समाज अपने धर्म-ग्रंथों के पन्नों से ही अपने समय-पथ पर अग्रसर होता रहा है। आदिकाल में जब सतयुग हो या वर्तमान का कलियुग, इन्हीं ग्रंथों ने हमें दिशा दिखाई है और पुरातन की सत्यता से रूबरू कराया है। अब उस सत्यता का यथार्थ ज्ञात करना तो हमारे विवेक की साधना पर आश्रित है। बहरहाल, इन ग्रंथों में मैं प्रभु श्री राम और श्री कृष्ण से काफी प्रभावित रहता हूँ। एक अलग-सा लगाव है इनसे जो इनके काल, इनके जीवन और इनसे जुड़ी लेखनी से बाँधे रखता है।
इनके व्यक्तित्व का महत्व और भी तब बढ़ जाता है, जब इनका व्यक्तित्व इनके काल-खंड का द्योतक बन कर, काल-पटल पर उभर आता है। सतयुग ने श्री हरीशचंद्र स्वरूप में एक व्यक्तित्व को प्रदर्शित किया। त्रेतायुग ने समस्त मानवीय रूपों में केवल श्री राम की सरसता में ही अपनी मर्यादा को परिलक्षित किया। द्वापरयुग में श्री कृष्ण की सर्वशक्तिमान छवि और उनकी कलाओं की अधिकता, उस युग की जटिलता को आज भी प्रज्ज्वलित रखते हैं। अन्तः मेरी कलियुगे ! इसी आस में इतने वर्ष बिता चुकी है कि काश किसी ऐसी आत्मा का बाह्यशरीर इसकी धरा को अनुग्रहित कर पाए। मानने वाले श्री कल्कि को उस पूर्णरूपेण, ध्रुवीय परिचय में देखते हैं। किंतु, कलि की विडंबना ही यही रही है कि इस इंतज़ार में इसकी सभी मानवीय-घड़ियों में अपनी क्रीड़ा से कर्म को पूरित करने वाले मनुष्य ऐसे ही व्यक्तित्व के अभाव में, स्वतः अपने विचारों, अपनी क्रियाओं को किसी ऐसे पक्ष में बाँट लेते हैं जो उन्हें श्रीराम-सा मर्यादापुरुषोत्तम और श्रीकृष्ण-सा सशक्त बना देता है। यह छद्म-स्वरूप उनका, केवल अपनी मिथ्या में ही सीमित रहता है। लेकिन, इस मृगतृष्णा से वे ख़ुद को इस हद तक परिपूर्ण महसूस कर पाते हैं कि तुरन्त हर किसी-न-किसी को ईर्ष्या से लिप्त अपने शाब्दिक बाणों से घायल कर देते हैं।
कलियुग के ये भ्रमित लोग, समाज के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं। उनकी छद्म परिपूर्णता जो उनकी लघुता का परिचायक है, उन्हें कुछ भी नया सोचने या नया करने से रोके रखेगी। समाज में कुछ बेहतर करने वाले लोग उनकी आँखों को फूटे नहीं समायेंगे। यही लोग कल्कि के आगमन में विलंब का कारण बनेंगे। उनके आगमन पर, उनके प्रथम विरोधी भी यही होंगे। भगवत स्वरूप के समान स्वयं को बनाने का उद्देश्य रखना गलत नहीं है। गलत है बिना कुछ किये, बगैर रघुकुल-तिलक-सी विरह सहे, बिना किशन-सा संघर्ष किये, उनके पद पर अपने आप को देखना। गरुण-पुराण में इसके लिए अलग से सज़ा होनी चाहिए। इससे अधिक घातक कोई मादकता नहीं। सोच को खत्म करने का इससे कोई बड़ा मार्ग नहीं।
कौन हैं ऐसे लोग?
जो चार चेहरों पर चार बातें करें,
जो बच्चों को झूठा बनाते चलें,
जिन्हें हिज़्र में कमजोरी दिखे,
जो प्रणाम को भी ठुकरातें चलें।
कुछ उदाहरण आसपास से :-
जो आज भी ड्यूटी करने वालों के लिए बुरी नियत पाले हुए हैं,
जिन्हें सिया-राम का विछोह ज्ञात नहीं हो रहा हो,
जो "आज का समय ही खराब हो गया है" बोलकर चुप बैठे हों,
जो तनख्वाह नहीं पा रहे शिक्षकों की स्थिति देखकर भी सरकार के साथ हो,
जो चाटुकारिता में अव्वल हों,
जो लोगों के परिवार तोड़ते हों,
जो मुफ्तखोर हों,
जो इनका गौरकर्ता हो,
जो आलस पर ही मरता हो।
निदान :
सबके पक्षों को समझिए।
बातों को स्पष्ट रखिये।
अपनी गलती को मानिए।
राजनीति को जूते की नोक पर रखिये।
शिक्षकों के सम्पर्क में रहिये। उनकी बात थामिए।
यही धर्म की बात है।
मित्र आपके इस सबको साध लेने वाली कला के हम मुरीद हैं। आप बिना कहे ही कितना कुछ कह जाते हैं... समझदार को इशारा काफी होता है... मगर यहां तो कितने ही वो लोग हैं जो इस इशारे को शायद कभी नही समझ पाएंगे, कुछ वो भी हैं, जो इसे कभी पढ़ ही नही पाएंगे! ये कलि की अपूर्णता नही तो और क्या है, और शायद कल्कि तबतक नही आएंगे जबतक इसपर पूर्णता का संधान न हो!
ReplyDeleteआभार आपका। सत्य और यथार्थ का अंतर जबतक समझ नही पाएंगे लोग तबतक कुछ नहीं हो सकता।
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