आज की रात पूरे देश के लिए एक साधारण रात होगी। एक ऐसी रात जिसमें पिताजी के समक्ष बच्चों की पटाखों-कपड़ों-मिठाइयों की ज़िद अंततः नींद में आ चुकी होगी। छोटे बच्चे स्वयं सो भी चुके होंगे। घर का बड़ा बेटा बाबा-आजी के पाँव दबाकर उन्हें शुभ रात्रि कह चुका होगा। छोटी बहन भी भैया से दिन की व्याख्या खत्म कर रही होगी। चाचा जी खेत के काम निपटाकर अन्नपूर्णा का प्रसाद ग्रहण कर रहे होंगे। चाची बस उनके फ़ारिग होने की राह तक रही होंगी ताकि अपने भी दिन का अंत कर सकें। पापाजी भी दफ़्तर से लौटकर, भोजन के पश्चात दूध पीते हुए परिवार में कल पर विचार कर रहे होंगे। रह-रहकर उनके ललाट पर शिकन की रेखाएँ भी उभर रही होंगी। बगल में माँ कभी अपने पति का, कभी अपनी सास की दवाओं का, कभी घर की लाडलियों का तो कभी सुबह के बादाम का ख्याल करते हुए उन पर अपनी व्यस्तता न्योछावर कर रही होंगी। आँगन में वहीं कहीं कोने में उनकी चेतना ने स्वयं की परवाह को सुबह झाड़ू के बगल में छोड़ा होगा जो अब भी अपनी बारी की उम्मीद लिए ऊँघ रहा होगा।
इन सबके लिए आज की रात अपने साथ आज तक कि समस्याओं को लेकर विदा हो जाएगी। प्रातः उदित होने वाला सूरज इन्हें एक नई आशा प्रदान करेगा। नये उत्साह के साथ, एक नए उन्माद में वे अपने धर्म से साक्षात्कार करने अपने कर्तव्य-पथ पर बढ़ चलेंगे।
परन्तु, इस सरल रात्रि का अनुभव सिर्फ बिहार-झारखण्ड जैसे पिछड़े राज्यों में संस्कृति सँवारते, दक्षिण में मेट्रो शब्द के उल्लेख से भी दूर पड़ोसी की खैर जाँचते, पूर्वोत्तर में प्रकृति को अपने रक्त से सींचते, पश्चिम में रेत से सनी साँसों में ममत्व फेंटते तथा शीश पर पत्थरबाज़ों के मध्य कश्मीरियत बचाते ग्रामीण ही कर सकते हैं। जी हाँ, दीपावली की अमावस्या इस वर्ष हम शहरवालों और इस सरस् निशा के बीच की दूरी के बढ़ते व्यास को प्रज्ज्वलित करती गयी है। कितना अजीब है ना मानो ये समूचा देश वैसे किसी परिवार के गाँव में ही सिमटकर रह गया हो तथा हमारे शहरों-हमारी दिल्ली के हिस्से आयी हो सिर्फ उपभोक्तावाद के कोख से जनि अभद्रता, क्रूरता, बेशर्मी, धर्मान्धता तथा द्वेष।
इस दीपावली ने यह सब परिलक्षित कर दिया हमें। ये पाँच जो किसी भी विनाश के परिचायक होते हैं अपने कम-से-कम एक उदाहरण मनन हेतु छोड़ गए हैं सामाजिक पटल पर। अभद्रता हमें तब दिखती है जब एक कथिक महान क्रिकेट बल्लेबाज़ किसी नागरिक की अभिव्यक्ति को एक निरंकुश शासक की भाँति ख़ारिज करते हुए उद्वेलित हो उठता है बिना इस बात की परवाह किये की उसके इस आचरण से सफलता की ओर मुँह बाये कितने अभ्यर्थियों को ऊँचाई के इस स्वरूप से उदासीनता ही प्राप्त होगी। किसको अच्छा लगेगा कि जिसका स्वप्न हम सँजोये हों उसमें दम्भ का तिनका-मात्र भी अक्स प्रदर्शित होता हो? इससे किसी व्यक्ति-विशेष को तो फ़र्क नहीं पड़ेगा किन्तु एक विशेष-व्यक्ति ज़रूर आम बनकर रह जाएगा। क्या अपने आदर्शों की ऐसी स्थिति चाहिए हमें?
क्रूरता हमें तब दिखती है जब हमारी राष्ट्रीय राजधानी के ही समीप मेरठ नामक शहर में एक युवा, एक नन्हीं-सी जान के दाँतों के बीच पटाख़े की विपदा को गति देकर खुश होता है। यह भी होता है दिल्ली की छत्र-छाया तले।
बेशर्मी हमें दीपावली बीते दो रातों के पश्चात आकाश में गुंजायमान होती आतिशबाज़ी के रूप में दिखाई देती है। एक ऐसा सम्वेदनशील समय जब पर्यावरण की पीड़ासनी चीखें हमारे यन्त्रों को आपातकालीन स्थिति की ओर संकेत करने को बाध्य कर रही हैं। तब हमारी दिल्ली के ही पिता-महाराज अपनी बच्चियों को "प्रदूषण-मास्क" लगाकर पटाखे जलाने में सहायता कर रहे हैं। क्या ऐसे निर्माण होगा टिकाऊ विकास के आधारों पर वातावरण के हितकर भविष्य का?
धर्मान्धता का परिचय वो समूचा जीवित वर्ग देता है इन शहरों में जो विज्ञान और विधान की कसौटी पर खरे उतरे हुए उच्च न्यायालय के फैसले की अवमानना को अपने धर्म की अवधारणा का विजय मानता है। यह तो अनागत काल ही बताएगा कि किस शहरी का धर्म बचेगा जब आज की ये दानवी प्रवृत्ति अवनि को बिलखते शिशुओं के समक्ष ही मृत्यु के घाट उतार देगी।
अंततः, द्वेष का रूप हम तब देखते हैं जब माँ वीणापाणि के सान्निध्य में पड़े दो शिष्य इसी दिल्ली शहर में दीपोत्सव के शोर-शराबे में अपने घर की यादों का काढ़ा पीकर सो जाने को मजबूर थे क्योंकि गाँव में प्रेम की चाश्नी में डुबोये रखने वाले रिश्तेदार इस शहर के मिज़ाज में ढल-से गए, क्योकिं पड़ोसी का तमगा थामे बैठी आबादी को अपने व्हाट्सएप्प संदेशों से ही फ़ुर्सत नहीं मिली, क्योंकि बाबा की शामों में भगवान का दर्जा पाने वाले गुरुजन भी अपनी निजी जीवन के वज़न में दबे रह गए, क्योंकि सबके लिए बैठाई गयी सरकार के लिए तो विद्यार्थी अस्तित्व में ही नहीं हैं। बस वो कमरे में रोज़ भ्रमण पर आने वाली छुछुन्दर ही थी जो आयी, और उनके साथ प्रसाद साझा करती गयी। शायद किसी बिल्ली ने पंजा मारा था उसे। दाएं तरफ का पिछला पैर शिथिल हो चला था तथा पीठ पर उस तरफ कुछ खरोंच थी। रात के साढ़े ग्यारह बजे जब बाहर के सभ्य-समाज में विस्फोटकों का शोर जारी था, उसका डरते-बचते आना गाँव के माली चाचा की स्मृति ऊभार कर चला गया।
ये दिल्ली शहर की दिवाली थी जहाँ दिल का तो दीवाला निकल चुका है और एक हमारे गाँव हैं जहाँ आज भी एक पिता अपने दूर किसी शहर में धूल फाँकते पुत्र को यादकर उसके परममित्र पर डाँट के आशीर्वाद निःसंकोच फैला देता है तथा वो मित्र भी उस स्नेह को पाकर, उस डाँट रूपी चादर में लिपटी प्रेम और उम्मीद की शीतलता की अनुभूति कर स्वयं को भाग्यवान महसूस करता है। ये दिल्ली, ये शहर, यहाँ एक नब्ज़ भी दूसरी के प्रवाह पर अपनी अधीरता को रोक ले तो बहुत है।
- सुखदेव।