चौकीदार हमारा अच्छा है।
पर संगत उसकी कैसी है?
इस पर चर्चा होनी होगी, जो;
अमन कि फिज़ा ऐसी है।
जिस उदित सूर्य में घर को हम,
बेटा अपना ले आएंगे।
उस शाम के ढलने से पहले,
उनको भी होश दिखाएंगे।
जो पर्चा लेकर घर-घर में,
जाकर के नाम बुलाते हैं।
कुछ को पहले ही विदा किये,
कुछ से नारे लगवाते हैं।
जो नारे उनकी मर्ज़ी के,
उनकी इच्छा को भाते हैं।
वो उन लोगों को चुनकर के,
औरों से परे हटाते हैं।
अपने निर्लज्ज मंचों से फिर,
उन्हें देशभक्त बतलाते हैं।
फिर उन सबको जो छूट गए,
पाशों में बाँधते जाते हैं।
क्या वक़्त है जब दूजे हमको,
संकल्प याद दिलवाते हैं?
अन्यथा उन्हीं के मुख हमको,
जाने क्या-क्या दर्शाते हैं।
इस पर भी तो प्रहरी अपना,
मौन नज़र ही आता है।
उसका विपक्ष भी छोड़ हमें,
तो राग भिन्न ही गाता है।
सुखदेव निराश न होना तुम,
जो दिखे वही हर बात कहें।
भूलो मत अपनी ही धरती पर,
आखिर रघु भी वन वास सहें।
वो बोलेंगे, दिल खोलेंगे;
मौके पर जी भर रो लेंगे।
पर तुम बस अपना थामो शर,
टिकना डटकर के चुनाव भर।
रामायण से जो भी दूर लगे,
उसे वोट न दो, उसे कर दो तर।
ढूँढो जिसे राम जी भाएँगे।
जिसे लखन लाल अपनाएंगे।
माँ सीता जिसको वर देगी,
औ भरत भ्रातृ हर्षाएँगे।
हाँ! प्रभु तुम्हारे अपने हों।
न किसी और के सपने हों।
हनुमत के सच्चे स्वामी हों,
न ही किंचित भी अभिमानी हों।
घबड़ाओ नहीं इस एकाकी में,
सबका मन तुमने है पढा नहीं।
ये वेदों की पावन भूमि है, इसने
निज-संघर्ष बिना कुछ गढ़ा नहीं।
- सुखदेव।
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