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Thursday 21 November 2019

Let the Unity Decide

Another Thursday comes to an end.

I wish I could call it "finish", instead of "end". But any grammatical upper hand cannot approve this because that's not true and without truth any lingual expression is spineless.

Now, dear Reader I hope my beginning does not disappoint you. Even if it does, please bear with me, as that's the best we do once we start something in the real world. Don't we?
If a student goes for the Science stream, she is forced to take it till her funeral-pyre. If an Engineer wants to switch his job, he first has to move past an even stronger social and emotional "HODOR". If a Bride yearns for the kiss of the divorce paper instead, she is better taken care of by Chitragupta's accounts. Isn't it true?
But, you were always quite and I command the same to you even now.
Further, stay calm as none of the above is out of the context here.

So, coming back to my "Thursday" we see that it is less of an Individual's day and more of the Mass' life. People spent their entire life counting the paces from home to work and this commute brings about their transformation from a potential form of life to a social jerk.

People do not have control over their own lives. They are driven only by the virtues and vistas of others. The Others here maybe their parents, their teachers, their friends, their bosses, their pasts, their religions, their sects, their doodhwalas, their neighbours, their "Sharma ji", their pets favourite snack seller and every other noun that you can come across.
Isn't this hillarious that in a generation where the Population claims to be the most Modern, the sole idea of an individual has got lost. Even that Constitutional Vote now matters in numbers and not in names.

For a second if we agree to parents being the towering figure above us because of them being the True form of God in this Universe in most cases, even then how do we explain the interference of the other Others?

Sadly, we do not have an answer. We can give some explainations to earn browney points here and there but, ultimately the unfortunate truth has to sink in.

Today, in the age of the clash of ideologies we have lost the relevance of ideas and if ideas do not define an individual, what else does?

Learn to appretiate your child's choice of colours over numbers, learn to promote your daughter's success in a field of opposite-sex or your son's efforts to be better at tears than jeers, learn to accept the Next Generation's choice in Partner and learn to opt for "their" experience over your "youthful zeal".

We also, need to move from our tendency to impress the multiples and need to shift the onus on letting the individual express himself/herself. Unless the Shiv and Shakti meet at each unit level the chaos would always exist. Thus, letting the Unity decide is of utmost importance.

Time is less for our rectifications on Earth but, there is a ray of hope in the belief that maybe if we try to improve ourselves as a species, Mother Nature forgives us.

Friday 8 March 2019

महिला दिवस, '19

8 मार्च का स्वागत है लेकिन कुछ गौर करना आवश्यक है।

आज सभी के साथ हम सब भी "महिला दिवस" के माहौल में मश्गूल हैं। लोग जगह-जगह, मेरी तरह ही अपने उद्गार गिराते चल रहे हैं। पलट कर देखने पर किसी मवेशी द्वारा सड़क पर छोड़े गए अवशेष की तरह दिखाई दे रहे हैं ये। मात्र अनावश्यक गन्दगी।
हो भी क्यों न। ये ऐसा दिन है जिसकी आड़ में,
साल भर अपनी hipocracy और chauvinism में लिपटे कामों में लड़कियों पर शारीरिक और मानसिक अत्याचार करने वाले लोग,
आज के दिन का इस्तेमाल अपनी छवि सुधारने में करते हैं।
आश्चर्य होता है देखकर कि जिस व्यक्ति को एक क्षण नहीं लगता अपनी बातों से किसी दुपट्टे वाली की इज़्ज़त उतारते या दरवाज़े के पीछे से,
विरोध जता रही किसी "निक्करवाली" को औकात याद रखने की नसिहत देते।
वैसा नीच आदमी भी आज बैनर लेकर महिलाओं के हक़ की आवाज़ लगाने निकल पड़ता है।
इसलिए, उन सभी girls, sisters, ex-es, friends, enemies, professionals, aunts, mothers... से विनती है कि आप life में जिस भी social-role में व्यस्त हैं। ऐसे लोगों की हुँकारों से बचें। ये खलु जीव, आपके हौसलों के पर को सबसे पहले काटने आएंगे। इसलिए, हर किसी को परे रख सिर्फ, अपने आप को साथ लेकर आगे बढिए। इस लड़ाई में भाग्यवश, कोई आपके साथ नहीं खड़ा है।
सोचता हूँ क्या आप की महत्ता इतनी ही रह गयी है कि "एक दिन दे दिया न, अब कैंची जैसी ज़बान बन्द रखो।"
अपनी महिला वाले रूप से ऊपर उठिये। Equal rights के बदले EQUITY के लिए आवाज़ उठाइये।
आपको सम्मान इसलिए थोड़े ही मिलना चाहिए क्योंकि आपके किसी undeservant-male-counterpart को मज़बूरी में मिल रहा है। शायद इसीलिए, आज हम "महिला" दिवस मना रहे हैं।
महिला - पुरुष के विलोम का शब्द।
आप इतने में ही सिमटी हुई हैं क्या?
मैं नहीं मानता। आप तो नारी हैं, स्त्री हैं, औरत हैं, वनीता हैं, अबला हैं, कान्ता हैं, चपला हैं।
सब कुछ हैं बस इस तुच्छ पुरुष का विपरीत मात्र नहीं हैं।

Thursday 28 February 2019

ये क्षणिक पुकार

चौकीदार हमारा अच्छा है।
पर संगत उसकी कैसी है?
इस पर चर्चा होनी होगी, जो;
अमन कि फिज़ा ऐसी है।

जिस उदित सूर्य में घर को हम,
बेटा अपना ले आएंगे।
उस शाम के ढलने से पहले,
उनको भी होश दिखाएंगे।
जो पर्चा लेकर घर-घर में,
जाकर के नाम बुलाते हैं।
कुछ को पहले ही विदा किये,
कुछ से नारे लगवाते हैं।
जो नारे उनकी मर्ज़ी के,
उनकी इच्छा को भाते हैं।
वो उन लोगों को चुनकर के,
औरों से परे हटाते हैं।
अपने निर्लज्ज मंचों से फिर,
उन्हें देशभक्त बतलाते हैं।
फिर उन सबको जो छूट गए,
पाशों में बाँधते जाते हैं।

क्या वक़्त है जब दूजे हमको,
संकल्प याद दिलवाते हैं?
अन्यथा उन्हीं के मुख हमको,
जाने क्या-क्या दर्शाते हैं।

इस पर भी तो प्रहरी अपना,
मौन नज़र ही आता है।
उसका विपक्ष भी छोड़ हमें,
तो राग भिन्न ही गाता है।

सुखदेव निराश न होना तुम,
जो दिखे वही हर बात कहें।
भूलो मत अपनी ही धरती पर,
आखिर रघु भी वन वास सहें।

वो बोलेंगे, दिल खोलेंगे;
मौके पर जी भर रो लेंगे।
पर तुम बस अपना थामो शर,
टिकना डटकर के चुनाव भर।
रामायण से जो भी दूर लगे,
उसे वोट न दो, उसे कर दो तर।

ढूँढो जिसे राम जी भाएँगे।
जिसे लखन लाल अपनाएंगे।
माँ सीता जिसको वर देगी,
औ भरत भ्रातृ हर्षाएँगे।

हाँ! प्रभु तुम्हारे अपने हों।
न किसी और के सपने हों।
हनुमत के सच्चे स्वामी हों,
न ही किंचित भी अभिमानी हों।

घबड़ाओ नहीं इस एकाकी में,
सबका मन तुमने है पढा नहीं।
ये वेदों की पावन भूमि है, इसने
निज-संघर्ष बिना कुछ गढ़ा नहीं।
                                - सुखदेव।

Tuesday 22 January 2019

बेटा आये तो अच्छा है।

एक ठिठुरते दिन की बात है। मैं हमेशा की तरह अपनी अपनी नियत गश्त पर निकली थी। जिस प्रकार सविता सदैव संध्या का सान्निध्य पाते ही समेटने लगता है अपने सभी अंशु रूपी सवालों को। उसी प्रकार मैं भी ढ़लती शाम के साथ सर सुंदरलाल अस्पताल के प्रसूति विभाग के मरीजों की स्थिति समझती बढ़ रही थी। काफ़ी व्यस्तता भरा दिन था वह। शायद इसीलिए थकान के मद में चूर मेरे शरीर को सामने के सभी बिस्तर, मेरे जोधपुर कॉलोनी वाले मकान की मंज़िल से दूरी बढ़ाते अवरोध ही जान पड़ रहे थे। वही मंज़िल जहाँ मेरा रवि अपने स्वादिष्ट परांठों के साथ मेरी राह देख रहा था। कल तो लौटा था वो अपनी वर्दीवाली ड्यूटी से। उस क्षण अपने फर्ज़ की अचकन को मैंने मन-ही-मन टाँग दिया तथा कुछ फुर्ती से, कुछ लापरवाही में उन सभी निपटाना प्रारम्भ किया। खुद पर हँसी भी आ रही थी मुझे क्योंकि अपना बर्तन माँजना याद आ रहा था अभी।

किसी तरह दूसरा कक्ष पार करके जब मैं आगे बढ़ी तब मुझे वो कल वाला बच्चा दिखा। बड़ा प्यारा लग लग रहा था कल वो। उसकी माँ भर्ती है यहाँ। दोनों पति-पत्नी ने शुरुआत में कभी किसी रिश्तेदार को दिखाया था मुझे। बहुत पहले। शायद जब मैं सीख रही थी। मुझे तो याद भी नहीं। खैर, मैंने यूँ ही उसे छेड़-सा दिया। पर इस बार उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। न गुर्राया, न माँ से शिकायत की धमकी दी। न ही अपने चाचा के कुर्ते को खींचने का बीड़ा उठाया। चुपचाप हाथ जोड़कर श्रीराम का नाम लेकर कुछ बुदबुदाता रहा। मुझे जिज्ञासा हुई। मैंने भी सोचा जो मरीज़ जाँच के वक़्त मेरे व्हाटसअप के इस्तेमाल पर उफ्फ़ तक नहीं करते उन्हें इस प्रभु-छवि के यहाँ थोड़े विराम पर कोई आपत्ति नहीं ही होगी।

सो मैंने झुककर उससे पूछा, " और अर्श, क्या कर रहे हो?"

उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, " डॉक्टर, मैं भगवान को एक बहन भेजने के लिए मना कर रहा हूँ। कल ही मांगा था मैंने।"

बालमन के इस सटीक और भोले जवाब ने गुदगुदा दिया मुझे।
" फिर आज क्यों रोक रहे हो? ऐसा क्या हो गया?",मैंने मुस्कराते हुए पूछ लिया।

इस पर उसने मुझे जो उत्तर दिया। उसने मुझे अंदर तक झकझोर दिया। किसी पुराने घाव को फिर से निचोड़ दिया। ऐसा ज़ख्म जिसका इलाज विश्व के किसी चिकित्सक के पास नहीं था। उस रात मैं घर भी नहीं गयी। रवि और उसके परांठे, उसकी किताबों के संग ही सो गए। मैं अपनी कुर्सी पर ही सन्न बैठी रह गयी।

उसने कहा, ' सुबह मैय्या, पितु से कह रही थी कि," बेटा आये तो अच्छा है। कम-से-कम भटका भी तो लौटकर घर ही आएगा।"'
                        - सुखदेव।

हमें बेटी नहीं चाहिए।

शाम हो चली थी। सर सुंदरलाल अस्पताल परिसर का माहौल भी लौटती सविता के आलोक में खिन्न आकाश का प्रारूप दिखा रहा था। अधिकतर कर्मचारी आठ बजे की अपनी कार्मिक-पाली के अंत की आस में घड़ी को देख आहें भर रहे थे। मरीज़ एक और दिन यहाँ के अस्वच्छ बिछौने पर कूल्हे टिकाये मज़बूर पड़े थे। सभी अपने मन के किसी कोने में चिकित्सकों की सात बजे वाली गश्त में स्वयं की रिहाई की प्रार्थना कर रहे थे। परिजनों के मध्य आपाधापी अपने चर्मोत्कर्ष पर पहुँचने को थी। उनके मुखपर डॉक्टरों के लिए व्याप्त शुद्ध बनारसी उद्गार ये प्रदर्शित करते हैं कि परिसर में काम अवश्य हुआ है। बनारस में शब्दों को नहीं, ज़िक्रों को महत्व दीजियेगा। तल्लीनता हालिस होगी।

ख़ैर, इस उदासीन-आलस भरे वातावरण में एक सफ़ेद अचकन की स्फूर्ति सबका ध्यान आकृष्ट कर रही थी। महिला एवं प्रसूति वार्ड में कॉलर पर परिश्रावक टिकाये डॉक्टर कारुणि आज अपने उत्साह पर वारी जा रही थी। शीघ्रता से उसने बाँये हाथ की सूची देखी। तेइसवाँ बिस्तर था यह। दीवार पर ठीक सामने अंकित वही संख्या उसकी इस हरकत से खिलखिला उठी। शायद उसे इस हड़बड़ी का राज़ ज्ञात हो गया था।

चौबीसवीं मरीज़ की स्थिति आज काफी बेहतर थी। उनकी गर्भाशय सर्जरी परसों हुई थी। उसे याद आया कल तो दर्द से ये चीखें ही जा रही थीं। किन्तु मानना पड़ेगा इनके साथ खड़े बच्चों को भी।
" उन्होंने मुझे भी इनके साथ एक वयस्क परिजन की कमी नहीं खलने दी। याद है जब उन्हें उठना था तो उनके बेटे ने कितनी सफाई से कन्धों को टेक दी। मानो एक आह! नहीं आती कि सबकी आँखें भारी हो जातीं।", डॉक्टर अनामिका ने सुबह-सुबह ये कहा था।
बाद में वैभव ने बताया कि वे सब उनकी बेटी के दोस्त थे। वो स्वयं किसी परीक्षा के सिलसिले में बाहर थी। अच्छा परिवार है इनका।

" सिस्टर! सिस्टर! तनी हमे बोखार बदे कुछ दे देतु।"
सामने खड़े परिजनों में से एक की कर्कशाहट ने कारुणि के अंतर्ध्यान को तोड़ा। प्रसन्नता की इस कहकशाहत में भी उसका क्रोध शांत नहीं रह सका। इतनी बेड-संख्याओं के बीच पान खाने की सज़ा की आड़ में उसने उस महिला को फट्कार कर बाहर कर दिया। " डॉक्टर और नर्स में बहुत फर्क है। न जाने ये गँवार कब समझेंगे। बड़ी आयी सिस्टरवाली।" उसने मन में सोचा। फिर चहकते हुए आगे बढ़ गयी जैसे कुछ हुआ ही न हो।

कोई और दिन होता तो बात अवश्य बढ़ जाती। शायद पूरे दिन का काम भी रुक जाता। परन्तु आज कोई साधारण दिन नहीं था। कारुणि इस दिन के इंतज़ार में न जाने कितने सपने न्योछावर कर चुकी थी। आज रात की गाड़ी से विवेक वापस आ रहा था। ' इंटेलीजेंस ब्यूरो वाले भी न जाने किस घाट के कीचड़ हैं। नौकरी के नाम पर बेचारे को कहीं भी जमा देते हैं। न जान की चिंता, न कल की फिक्र। ये भी तो ड्यूटी के लिए हमेशा आगे रहता है और यहाँ अगले सम्पर्क तक मेरी सांसें अटकी रहती हैं।'
ख़ैर, उसने अपनी इस स्थिति का फैसला स्वयं किया था। पिताजी के उस फोन से लेकर आजतक उसने इसका अफ़सोस नहीं किया। फिलहाल विवेक के आने से पहले उसे तीन बार साफ किये जा चुके घर में पुनः एक चक्कर झाड़ू का देना था। उसने आने से पूर्व ही गाजर का हलवा और बनारसी दम आलू तैयार कर लिए थे। उन्हें बस मक्के की रोटी के साथ गर्म करके परोसना रह गया था। फिर तो सिर्फ राधा के आँखों की चमक थी और कृष्ण का खाली पतीला।

अब तक वो तीस का आँकड़ा पार कर चुकी थी। बाकी लोग भी मौसम का लगभग सही अनुमान लगा चुके थे। शायद यही कारण था कि डॉक्टर के निरीक्षण पर होते हुए भी हवा मानो फाग की बह रही थी। सभी को सर्द की गलन से ये बदलाव अधिक भा रहा था। इसी लचीलेपन में एक बच्चा बत्तीसवें बिस्तर से सटे विशेष कक्ष की चौखट पर छूट गया था। नये परिजन इस बात को जान लें कि इस अस्पताल में संक्रमण को ध्यान में रखकर बच्चों के लिए कुछ कड़े नियम हैं जिनकी अवमानना पर अधिकारी से प्रसाद प्राप्त होता है। आज न जाने किसका पर्चा कटा था।

कारुणि ने बच्चे की ओर नज़र घुमाई पर किसी को आगे बढ़ते न देख वो समझ गयी, " ये निश्चय ही नन्दा जी के साथ होगा।" नन्दा जी को इस बार विशेष कक्ष प्रदान हुआ था। वे उम्मीद से थीं तथा दो-तीन दिन ही शेष रह गए थे उनके प्रसव को। उसने देखा वो बच्चा आँख बंद किये कुछ बड़बड़ा रहा था। राजबन्धु मिष्ठान के राजभोग के जैसे उसके गालों और उसके मासूम चेहरे ने डॉक्टर को अपनी ओर खींच ही लिया।

कारुणि ने उसके घुंघराले बालों पर हाथ फेरते हुए पूछा, " क्या हुआ गोलू? किससे बात कर रहे हो?" उसने जो उत्तर दिया उसे सुनकर कारुणि अंदर तक हिल गयी। आश्चर्यजनक था यह देखना कि कैसे एक अबोध बालक की बातों ने एक परिपक्व वयस्क के हृदय को छलनी कर दिया। उसके शब्द-शूलों ने उसके एक पुराने कर्क पर वार किया।

उस रात कारुणि घर नहीं गयी। उधर भारतीय रेल की पुरानी आदत ने विवेक को भी पटरियों पर ही अटकाए रखा। अपनी मेज़ की दीवार के पीछे अपनी उँगलियों को आपस में उलझाए वो बुत हो गयी। कहीं तरुणाई की लपट पर किसी ने दोबारा जल छिड़क दिया था।

उस बच्चे ने अपनी माँ की वाणी दोहराई थी।
" हमें बेटी नहीं चाहिए। बेटा अगर मनमानी भी करेगा तो लौटकर घर ही आएगा।"
                               -  सुखदेव।