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Wednesday, 29 April 2020

--- उम्मीद की आवाज़ ---


कभी रात जब रेल की यूँ,
आवाज़ सुनाई दे जाती है।
मन में ही मन मारे मानव को,
आगाज़ दिखाई दे जाती है।

एक आगाज़ जिसके होने भर से,
टूट जाएगा फिर लॉकडाउन,
बाहर निकलेंगे मानव और,
रख आएँगे सब भय डाउन,
भले अपने मन के ही तहखाने में,
कुछ जाने में, कई अन्जाने में।

परंतु, एक बात तो इस स्वप्न-सरीखे 
से छुपी नहीं,
वो बात जो धोखे के खंज़र-सी घुपी नहीं।
यही की इन सब के बीत जाने के बाद,
हमारा निज नाम कमाने के बाद,
ये भय कहीं नहीं जाएगा।
जहाँ होगा मानव,
इसे भी संग पायेगा।

ये मृत्यु का भय नहीं है।
ये निराशा का भय है।
समस्या भीतर बन्द होने में नहीं है।
उस बन्द होने के पाबन्द की समस्या है।
यही है वो जो मानव अपने बहन के विवाह पर सोचता है,
या किसी अन्य भोली और स्वच्छंद कन्या के लिए सोचता है,
या किसी ख़राब रिश्ते में स्वयं के लिए सोचता है।

यह वही भय है,
कि जब गाड़ी की सीटी सुनाई दे जाए।
पर उम्मीद न बने,
हताशा की कालिमा हटाई न जाये।

हे बहन! ऐसे में तुम नौकरी धर लेना,
कमाना बहुत के
रकम से खामियाँ ढक लेना।
तुम्हारा जीना फिर सरल हो जाएगा।
किसी और गले,
बेरोज़गारी का जमा, गरल हो जाएगा।

हे कन्या! तुम जो भी हो,
जैसी भी हो?
अपना प्रतिकार अमर रखना।
उस रेल की ध्वनि परखने को,
सदैव कसकर कमर रखना।

हे मानव! तुम अपनी ही बात पर क्या हल लोगे?
हो जाएगी सुबह, व्यर्थ ही पल लोगे।
अपनी दृष्टि में बस गोचर रखना।
हर कर्म को दृष्टिगोचर रखना।
वैसे जीना बस, जीना नहीं,
साधना होती है।
सत्य का यथार्थ और यथार्थ का सत्य जानना ही,
उस पूज्य गाड़ी की असल आराधना होती है।

जीवन का कोई भी कोरोना हो,
या वक़्त का कोई तंग कोना हो,
अपने शर्तों पर यूँ ही अड़े रहना,
सुनने को पटरियों पर भागती वह तान,
अपनी चेतना के कान खड़े रखना।
                               - सुखदेव।




Sunday, 19 April 2020

धर्म की बात


भारतीय समाज अपने धर्म-ग्रंथों के पन्नों से ही अपने समय-पथ पर अग्रसर होता रहा है। आदिकाल में जब सतयुग हो या वर्तमान का कलियुग, इन्हीं ग्रंथों ने हमें दिशा दिखाई है और पुरातन की सत्यता से रूबरू कराया है। अब उस सत्यता का यथार्थ ज्ञात करना तो हमारे विवेक की साधना पर आश्रित है। बहरहाल, इन ग्रंथों में मैं प्रभु श्री राम और श्री कृष्ण से काफी प्रभावित रहता हूँ। एक अलग-सा लगाव है इनसे जो इनके काल, इनके जीवन और इनसे जुड़ी लेखनी से बाँधे रखता है।
इनके व्यक्तित्व का महत्व और भी तब बढ़ जाता है, जब इनका व्यक्तित्व इनके काल-खंड का द्योतक बन कर, काल-पटल पर उभर आता है। सतयुग ने श्री हरीशचंद्र स्वरूप में एक व्यक्तित्व को प्रदर्शित किया। त्रेतायुग ने समस्त मानवीय रूपों में केवल श्री राम की सरसता में ही अपनी मर्यादा को परिलक्षित किया। द्वापरयुग में श्री कृष्ण की सर्वशक्तिमान छवि और उनकी कलाओं की अधिकता, उस युग की जटिलता को आज भी प्रज्ज्वलित रखते हैं। अन्तः मेरी कलियुगे ! इसी आस में इतने वर्ष बिता चुकी है कि काश किसी ऐसी आत्मा का बाह्यशरीर इसकी धरा को अनुग्रहित कर पाए। मानने वाले श्री कल्कि को उस पूर्णरूपेण, ध्रुवीय परिचय में देखते हैं। किंतु, कलि की विडंबना ही यही रही है कि इस इंतज़ार में इसकी सभी मानवीय-घड़ियों में अपनी क्रीड़ा से कर्म को पूरित करने वाले मनुष्य ऐसे ही व्यक्तित्व के अभाव में, स्वतः अपने विचारों, अपनी क्रियाओं को किसी ऐसे पक्ष में बाँट लेते हैं जो उन्हें श्रीराम-सा मर्यादापुरुषोत्तम और श्रीकृष्ण-सा सशक्त बना देता है। यह छद्म-स्वरूप उनका, केवल अपनी मिथ्या में ही सीमित रहता है। लेकिन, इस मृगतृष्णा से वे ख़ुद को इस हद तक परिपूर्ण महसूस कर पाते हैं कि तुरन्त हर किसी-न-किसी को ईर्ष्या से लिप्त अपने शाब्दिक बाणों से घायल कर देते हैं।

कलियुग के ये भ्रमित लोग, समाज के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं। उनकी छद्म परिपूर्णता जो उनकी लघुता का परिचायक है, उन्हें कुछ भी नया सोचने या नया करने से रोके रखेगी। समाज में कुछ बेहतर करने वाले लोग उनकी आँखों को फूटे नहीं समायेंगे। यही लोग कल्कि के आगमन में विलंब का कारण बनेंगे। उनके आगमन पर, उनके प्रथम विरोधी भी यही होंगे। भगवत स्वरूप के समान स्वयं को बनाने का उद्देश्य रखना गलत नहीं है। गलत है बिना कुछ किये, बगैर रघुकुल-तिलक-सी विरह सहे, बिना किशन-सा संघर्ष किये, उनके पद पर अपने आप को देखना। गरुण-पुराण में इसके लिए अलग से सज़ा होनी चाहिए। इससे अधिक घातक कोई मादकता नहीं। सोच को खत्म करने का इससे कोई बड़ा मार्ग नहीं। 


कौन हैं ऐसे लोग?

जो चार चेहरों पर चार बातें करें,
जो बच्चों को झूठा बनाते चलें,
जिन्हें हिज़्र में कमजोरी दिखे,
जो प्रणाम को भी ठुकरातें चलें।
कुछ उदाहरण आसपास से :-
जो आज भी ड्यूटी करने वालों के लिए बुरी नियत पाले हुए हैं,
जिन्हें सिया-राम का विछोह ज्ञात नहीं हो रहा हो,
जो "आज का समय ही खराब हो गया है" बोलकर चुप बैठे हों,
जो तनख्वाह नहीं पा रहे शिक्षकों की स्थिति देखकर भी सरकार के साथ हो,
जो चाटुकारिता में अव्वल हों,
जो लोगों के परिवार तोड़ते हों,
जो मुफ्तखोर हों,
जो इनका गौरकर्ता हो,
जो आलस पर ही मरता हो।


निदान : 

सबके पक्षों को समझिए।
बातों को स्पष्ट रखिये।
अपनी गलती को मानिए।
राजनीति को जूते की नोक पर रखिये।
शिक्षकों के सम्पर्क में रहिये। उनकी बात थामिए। 
यही धर्म की बात है।

Thursday, 16 April 2020

New updates arriving tomorrow.

 
ये अपने गेहूँ की बाली,
पीछे संध्या की लाली।
माँ आ भी जाओ बचाने,
कब तक पीटूँ मैं थाली।
             - सुखदेव 

Tuesday, 14 April 2020

---- कोरोनामर्दिनि-स्तुति ----

नमन तुम्हें दुर्गे है मेरा,
नमन करो स्वीकार।
सृष्टि अबकी त्राहि-त्राहि करे,
में जन-जन हाहाकार।
दुर्गे नमन करो स्वीकार।

ड्यूटी पर जितने हैं कर्मी,
है उचित जहाँ व्यवहार।
निश्चित हैं सच्चे वो धर्मी,
जय नव-पीढी के कुम्हार।
दुर्गे नमन करो स्वीकार।

इस संकट में नासिका हमारी,
भीगी जैसे करतार।
है बन बैठी जब नाक तुम्हारी,
अब खींच भी लो तलवार।
दुर्गे नमन करो स्वीकार।

ये असुर भी हैं पूरे ही ततपर,
जहाँ लोग बने हथियार।
हम बाँधें हैं हाथों को कसकर,
केवल तुम्हीं रही आसार।
मैय्या नमन करो स्वीकार।

अबतक जितना है जग में,
सब आपका ही तो है अम्बार।
कृपा सदा बस बनी रहे औ,
ग्रहण हो सबके नित आभार।
दुर्गे नमन करो स्वीकार।

आपकी दृष्टि होती है जो,
होते हैं निज पर उपकार।
इस जीवन में साँसों के संगी,
हैं जुड़े आपके सब उपहार।
दुर्गे नमन करो स्वीकार।

कुल की हो तुम अनंत मातु-वट,
तुम्हें सब दिन पूजे हैं नर-नार।
सदा निश्चिंत हो ध्यावें सब धन,
तुम सबकी पालनहार।
दुर्गे नमन करो स्वीकार।

देवी वैष्णव, काली, अम्बा, कपालिनी;
अन्नपूर्णा, जगदम्बे, शक्ति, कोरोनामर्दिनि;
जय विंध्यवासिनी, भवानी, ताराचण्डी;
माँ मुंडेश्वरी, शारदा, महिषासुरमर्दिनि;
हे कोरोनामर्दिनि, नमस्ते जीवन-दायिनी।
सुखदेव-नमन देवी धरें, नमस्ते नारायणी।

इस कर्म-युग में


मैं हार गया हूँ अपनों से।
अपने ही सपनों से।
इन साँसों की कड़ियों की,
मुस्काती लड़ियों से।
मैं हार गया हूँ अपनों से।

मेरा यह अंतहीन समाज,
रह गया हीन बस आज।
रण में बचाव की एक ही छत,
कर रही वितान को आगाज़।
मैं टूट रहा इन कथनों से।
मैं हार गया हूँ अपनों से।

न जाने किस कुंठा का सार,
 पर झुके-झुके परिवार,
मेरी रामायण का धोबी बन,
कहाँ तक गिरेगा ये संसार।
अब ऊब के इन सब व्यसनों से,
मैं हार गया हूँ अपनों से।

जब राम गमन-वन को जायें,
क्यों कैकयी सिया को तड़पाये?
रावण-हरण भी लघु दिखे जब,
श्री जटायु कुटुम्ब देख थर्राए।
हनुमन्त मौन अब जपनों से।
मैं हार गया हूँ अपनों से।

ये प्रश्न मेरा कोई ले जाये।
प्रभु के कर्ण पठा आये।
लखन-भरत जब शांत रहे,
सीता को संग क्यों ना लाये?
मैं दब-सा गया इन प्रश्नों से।
मैं हार गया हूँ अपनों से।
                      - सुखदेव।

Monday, 23 March 2020

त्रयी तमाम तारतीं

आज इस अमर-त्रयी को, नमन भी ज़रा-सा कीजिये।
आज इस अजर-त्रयी को, शर्म भी ज़रा-सा कीजिये।
वक़्त के बस मापदण्ड हैं जो गए बदले अभी तक,
आज इस अधर-त्रयी को, गर्म भी ज़रा-सा कीजिये।

आज इस अगर-त्रयी को, गमन भी ज़रा-सा कीजिये।
आज इस अपर-त्रयी को, नर्म भी ज़रा-सा कीजिये।
बंदिशें जो मस्तकों की हैं बन चुकी गाढ़ी हिजाब,
आज इस असर-त्रयी को, कर्म भी ज़रा-सा कीजिये।

आप जग में आज भी मजमा लगाए लीन हैं,
धन्य तीनों प्राण थे जो प्राण में अब लीन हैं।
                                 - सुखदेव।

अमर-त्रयी - तीनों शहीद
अजर-त्रयी - तीसरी तारीख ( बीस के बाद की )
अधर-त्रयी - वेद-first three
अगर-त्रयी - मानव जीवन के तीन संशय 
अपर-त्रयी - मानव जीवन की तीन क्षमता से अधिक आँकी गई पहलुएं
असर-त्रयी - मानव जीवन के तीन छद्म नियंत्रक

Wednesday, 11 March 2020

होलीय रंगों की कुछ छींटें

बीत गयी होली।

फोन पर आशीषों के अंबार लगे,
कम्पनियों के लाभों के व्यापार लगे।
परिवार आज फिर एक संग नहीं हो पाया,
जब रोटी-ड्यूटी की डटकर हुँकार लगे।

भला हो गाँव से दूर,
इस शहरी वीराने में रहते,
सगे-सम्बन्धियों का।
बुआ के हाथ की रोटी,
फूफाजी की विरासत,
और बच्चों की निश्छलता,
इन्हें तो याद रखना होगा।

यही दर्शन घूम रहा था आज भी -

रोटी का निवाला अवश्य ही,
भारी है हमारा।
इतने पर्वों की उदासियाँ जो समेटे बैठा है।

पापाजी का पार्विक सान्निध्य,
माँ का वास्तविक स्पर्श,
बाची से गुफ्तगू,
सन्तन कला विज्ञ,
माई का कुशल-क्षेम,
चाची की रसोई,
चाचाजी का गर्व,
सत्या-सिया की नक्को-सन्तति - 
इन सभी के ऊपर स्थान पाए,
श्री श्री विलायती कीकड़ जी महाराज।

अबकी अपनी असली,
यही रही होली।

होली की असीम शुभकामनाएं।

PC : Vikas Kumar.


Monday, 9 March 2020

Another year, another women's day


Happy Women's day to all the women out there. 
We - the current generation of this world, belong to a society that has a history of writing histories. We may be a part of an accident cult, a peace-loving community, a goal driven crusade, a truth seeking culture or the sanatan dharm. But, we all have a similarity that is unnoticed to none. We are all part of a lineage that finds solace in sexual polarity and gender-based inequalities. All our societies have : 
a man that by every passing day, is transforming more and more into Super Man, (in his own praise-laden words), and
a woman that by all means is represented by analogies that show her in weak light, keeping here tied in the shackles of the second-sex.

Every year, if we are aware, we can see a whole new colour to people's personality, around us. Based on the observations of the past years, I can proudly say that I am in acquaintance with women who have shown their capacity in every segment of life that an average student witnesses. I see them leading from the front when it comes to : 
teaching a class, 
silencing a mass,
rash-driving,
truth striving,
commencing a protest,
displaying detest,
sexist abuses,
rational excuses,
killing a gossip spree,
letting live literature's tree,
being the moral compass,
picking the bit of sass,
seeing the winter come,
emptying stacks of rum,
defying threats of COVID 19,
being ever ready for the unforseen,
having the back of family,
living the days all happily.
So I wish a very happy women's day to all women, all kinds of women. 
You all are the Super Women, which even Shaw could not perceive. 
Thank you for making this world, a less chaotic mess.
                     - Sukhdev.



खुरचन

खालि लोगों से भरा अपना भारत,
ख़ाली लोगों से भरता जा रहा है।
                                - सुखदेव।


Wednesday, 4 March 2020

AFFIRMATIONS

This is to notify that this blog is now ready to turn a new leaf. As per this change, I ask you to be ready for getting a new post every week accompanied with sections on photography, scientific research, questions to ponder upon and many more.

These are not just intentions but Affirmations for which I an determined to work hard.
Enjoy your stay.
Never by shy of showing your support.

hear your Say.