भरत खंड के भारतवर्ष के वर्तमान स्वरूप में बिहार रूपी राज्य व्याप्त है। जो नहीं जानते वो इसे इस बात से समझ सकते हैं कि बिहार, भारत के लिए वही है जो किसी मुस्कान में दीप्ति होती है। अति-सौभाग्यशाली होना पड़ता है उसे बूझने हेतु। बिहार के बारे में एक खास बात और है। आप जिस ओर से भी इसकी सीमा में प्रवेश करेंगे आप एक ऐसे वासु को पार करेंगे जो आपके नए जन्म का द्योतक होगा। उदाहरण स्वरूप, अगर आप बिहार की दक्षिण-पश्चिमी सीमा को लांघेंगे, तो आपको कर्मनासा नदी डाकनी होगी। जैसा कि इसके नाम से विदित है, यह आपके कर्मों की फेहरिश्त को समेट के रख देती है। आपको शून्य से पुनः प्रारम्भ करना होगा। इसी प्रकार अगर आप इस मार्ग से विदा ले रहें हों तो भी आपको यहीं अपनी सूची डुबोनी होगी। अतः गर कभी आप इस दीप्ति की असल सीमा को समझने के लिए इच्छुक हों तो इसी गुण वाले साक्ष्य की तलाश कीजियेगा अपने समक्ष उपस्थित लकीर में। शायद यह कर्मों के पुनर्जन्म का ही फेर है कि कर्तव्य को मोह से ऊपर रखते हुए ये बिहारी गृह के ज़िक्र से भी दूर मानव-सभ्यता के उत्थान में अपना सहयोग दे रहे हैं। कभी-कभार लाँछन भी लगाए गए हैं इनपर, तो उसके उलट अक्सर प्रशंसा की चाश्नी में उतारा भी गया है। कभी अपनी कर्मभूमि को सेवा देने का हक़ छीना भी गया है, तो अक्सर अपनी निर्लज्ज त्रुटियों के सुधार के हेतु इनकी बेबाक सहायता भी ली गयी है। परन्तु, सभ्य-समाज के इतिहास में शायद ही कभी इस वर्ग ने अपने कर्तव्य पर दूसरों के कुविचारों की धूल टिकने दी हो। आवयकता पड़ने पर इसी वर्ग ने खुशी-खुशी अपने देश, अपनी ज़मीन के लिए अपनी जान लुटा दी, अपनी अस्तित्व को ख़ाक में मिला दिया और वक़्त की गुज़ारिश पर नए सृजनताओं की पराकाष्ठा से भी सरोकार कर लिया। देश हो या विदेश, राजनीति, शिक्षा, कला, भाषा, रक्षा, विज्ञान, सिनेमा, खेल, आदि मानवीय गुणों में एक समेकित उत्कृष्टता भी प्राप्त की है इन्होंने। कुछ राहु काल भी इनके चन्द्रमा पर ग्रहण दिखाते हैं किंतु इनकी नेकी ने ही रश्क-ए-मिजाज़ी के रास्ते अवरोधों को न्योता दिया है। इनकी विविधता तो आज भी एक बड़े तबके की समझ से परे है। एक पुरानी कहावत हमें यह स्पष्ट करती है कि यहाँ एक कोस पर भाषा और तीन कोस पर पानी में बदलाव हो जाता है। ज्ञात हो, यहाँ की लोक-पद्धति में व्याप्त विवाह-संस्कार के परिछन रस्म का एक गीत "चलनी के चालल दुलहा..." को हम कम-से-कम बत्तीस क्षेत्रीय भाषाओं में गा सकते हैं। सुनने की कला पर तो अकेले श्रोता का अधिकार होता है। इस विविधता में भी यहाँ के समाज ने कुछ सदियों के भीतर ही अपनी संस्कृति को केवल भक्ति से, ईश्वर-अल्लाह संस्कृति में सहर्ष स्वीकार कर लिया। जगत की आबादी जहाँ पूरी क़ायनात को द्विरँगी करने के लिए जूझ रही है, यहाँ के निरीह कामगार हर एक रंग की पुष्प-माल, संग अपने भाल आज भी जगतजननी को अर्पित करते हैं। अबकी जब पर्यावरण और महिलाऐं विश्व-पटल पर अपने हिस्से की वायु के लिए भी संघर्ष कर रही हैं, यहाँ ऐसी खबरों पर उबासियों का सिलसिला आम है। हो भी क्यों ना, इन्होंने पुरुष, पर्यावरण और पत्नी ( इसका सरलतम अर्थ न मान लेना। आगाह कर देता हूँ मैं। ) को कभी अलग कर देखा ही नहीं। जिसकी साया में जिसकी काया से जन्म लेकर सब कुछ सीखा, उसकी अस्मत पर आँच नहीं आने देते ये लोग। अफ़सोस यह भी खटक जाता है कइयों को। ख़ैर अब आप ज़रा गौर फरमायें। क्या ध्यान से देखा जाए तो कश्मीर में दिल्ली में बैठे हुक्मरानों के चेहरे की नाक बचाते हुए, अपने ही राष्ट्र की बहकी हुई जनता के हाथों जान गंवाती, घायल होती हमारी सेना भी अपने आप में किसी बिहार से कम है? उसका भी अपना युवक जब अपनी जीवन-रागिनी से विदा लेकर तबादले वाली जगह के द्वार पर अपने कर्मों को नासते हुए अगले वर्ष, पुनः उसकी आँखों की नमी में अपना अक्स देख पाने की कामना लिए आगे बढ़ता है। क्या वो उस वक़्त अपने गृह से दूर, अपनी तक़दीर से जूझता एक मुस्कान समेटे, हार-हीन तस्वीर बनाये रखने के लिए प्रण नहीं कर रहा होता? वही नहीं हमारे देश के ही किसी जंगल में जीवन जीने को लालायित राष्ट्रीय पशु व्याघ्र का कुटुम्ब भी तो किसी बिहारी की तरह ही कर्तव्य की राह पर दर-दर भटकता, पग-पग सँवारता अपने प्रभु की शरण में जाने से पूर्व, अपने हिस्से में आई उनकी अभिलाषा को साकार करता उम्र और मानवीय क्रूरता के पड़ावों को पार करता है। धन्य हैं हम भी जो अवनि के माध्यम से हमने इनके समक्ष उनके ऊपर लगने वाले आदमखोर जैसे मानुषिक स्वार्थ और आलस्य जनित बट्टों का भी ख्याल करने की नसीहत दे दी। इन सब के ऊपर एक और चीज़ है जो इस त्रिमूर्ति को एक सूत्र में पिरोती है - छठ।
छठ पर्व में हम डूबते सूर्य को अर्घ देते हैं। उसी तरह जैसे बिहार के गाँव आज भी हम अपनेपने बुज़ुर्गों को सम्मान बख्शते हैं। या सेना के जवान तिरंगे की लाज के लिए अपना अंशुमाली तक अस्त कर देते हैं, पूरे गर्व के साथ। या ये धार्मिक बाघ जो मृत्यु को प्रतिष्ठा प्रदान करने हेतु देवी दुर्गा की सवारी को विराम दे, इस मर्त्य-लोक में जन्म लेते हैं।
ये बिहारी, ये जवान, ये व्याघ्र और ये छठ; थामे हैं हमें।
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Sunday, 11 November 2018
अस्पष्ट दर्शन
Saturday, 10 November 2018
दीपोत्सव : इस बार
आज की रात पूरे देश के लिए एक साधारण रात होगी। एक ऐसी रात जिसमें पिताजी के समक्ष बच्चों की पटाखों-कपड़ों-मिठाइयों की ज़िद अंततः नींद में आ चुकी होगी। छोटे बच्चे स्वयं सो भी चुके होंगे। घर का बड़ा बेटा बाबा-आजी के पाँव दबाकर उन्हें शुभ रात्रि कह चुका होगा। छोटी बहन भी भैया से दिन की व्याख्या खत्म कर रही होगी। चाचा जी खेत के काम निपटाकर अन्नपूर्णा का प्रसाद ग्रहण कर रहे होंगे। चाची बस उनके फ़ारिग होने की राह तक रही होंगी ताकि अपने भी दिन का अंत कर सकें। पापाजी भी दफ़्तर से लौटकर, भोजन के पश्चात दूध पीते हुए परिवार में कल पर विचार कर रहे होंगे। रह-रहकर उनके ललाट पर शिकन की रेखाएँ भी उभर रही होंगी। बगल में माँ कभी अपने पति का, कभी अपनी सास की दवाओं का, कभी घर की लाडलियों का तो कभी सुबह के बादाम का ख्याल करते हुए उन पर अपनी व्यस्तता न्योछावर कर रही होंगी। आँगन में वहीं कहीं कोने में उनकी चेतना ने स्वयं की परवाह को सुबह झाड़ू के बगल में छोड़ा होगा जो अब भी अपनी बारी की उम्मीद लिए ऊँघ रहा होगा।
इन सबके लिए आज की रात अपने साथ आज तक कि समस्याओं को लेकर विदा हो जाएगी। प्रातः उदित होने वाला सूरज इन्हें एक नई आशा प्रदान करेगा। नये उत्साह के साथ, एक नए उन्माद में वे अपने धर्म से साक्षात्कार करने अपने कर्तव्य-पथ पर बढ़ चलेंगे।
परन्तु, इस सरल रात्रि का अनुभव सिर्फ बिहार-झारखण्ड जैसे पिछड़े राज्यों में संस्कृति सँवारते, दक्षिण में मेट्रो शब्द के उल्लेख से भी दूर पड़ोसी की खैर जाँचते, पूर्वोत्तर में प्रकृति को अपने रक्त से सींचते, पश्चिम में रेत से सनी साँसों में ममत्व फेंटते तथा शीश पर पत्थरबाज़ों के मध्य कश्मीरियत बचाते ग्रामीण ही कर सकते हैं। जी हाँ, दीपावली की अमावस्या इस वर्ष हम शहरवालों और इस सरस् निशा के बीच की दूरी के बढ़ते व्यास को प्रज्ज्वलित करती गयी है। कितना अजीब है ना मानो ये समूचा देश वैसे किसी परिवार के गाँव में ही सिमटकर रह गया हो तथा हमारे शहरों-हमारी दिल्ली के हिस्से आयी हो सिर्फ उपभोक्तावाद के कोख से जनि अभद्रता, क्रूरता, बेशर्मी, धर्मान्धता तथा द्वेष।
इस दीपावली ने यह सब परिलक्षित कर दिया हमें। ये पाँच जो किसी भी विनाश के परिचायक होते हैं अपने कम-से-कम एक उदाहरण मनन हेतु छोड़ गए हैं सामाजिक पटल पर। अभद्रता हमें तब दिखती है जब एक कथिक महान क्रिकेट बल्लेबाज़ किसी नागरिक की अभिव्यक्ति को एक निरंकुश शासक की भाँति ख़ारिज करते हुए उद्वेलित हो उठता है बिना इस बात की परवाह किये की उसके इस आचरण से सफलता की ओर मुँह बाये कितने अभ्यर्थियों को ऊँचाई के इस स्वरूप से उदासीनता ही प्राप्त होगी। किसको अच्छा लगेगा कि जिसका स्वप्न हम सँजोये हों उसमें दम्भ का तिनका-मात्र भी अक्स प्रदर्शित होता हो? इससे किसी व्यक्ति-विशेष को तो फ़र्क नहीं पड़ेगा किन्तु एक विशेष-व्यक्ति ज़रूर आम बनकर रह जाएगा। क्या अपने आदर्शों की ऐसी स्थिति चाहिए हमें?
क्रूरता हमें तब दिखती है जब हमारी राष्ट्रीय राजधानी के ही समीप मेरठ नामक शहर में एक युवा, एक नन्हीं-सी जान के दाँतों के बीच पटाख़े की विपदा को गति देकर खुश होता है। यह भी होता है दिल्ली की छत्र-छाया तले।
बेशर्मी हमें दीपावली बीते दो रातों के पश्चात आकाश में गुंजायमान होती आतिशबाज़ी के रूप में दिखाई देती है। एक ऐसा सम्वेदनशील समय जब पर्यावरण की पीड़ासनी चीखें हमारे यन्त्रों को आपातकालीन स्थिति की ओर संकेत करने को बाध्य कर रही हैं। तब हमारी दिल्ली के ही पिता-महाराज अपनी बच्चियों को "प्रदूषण-मास्क" लगाकर पटाखे जलाने में सहायता कर रहे हैं। क्या ऐसे निर्माण होगा टिकाऊ विकास के आधारों पर वातावरण के हितकर भविष्य का?
धर्मान्धता का परिचय वो समूचा जीवित वर्ग देता है इन शहरों में जो विज्ञान और विधान की कसौटी पर खरे उतरे हुए उच्च न्यायालय के फैसले की अवमानना को अपने धर्म की अवधारणा का विजय मानता है। यह तो अनागत काल ही बताएगा कि किस शहरी का धर्म बचेगा जब आज की ये दानवी प्रवृत्ति अवनि को बिलखते शिशुओं के समक्ष ही मृत्यु के घाट उतार देगी।
अंततः, द्वेष का रूप हम तब देखते हैं जब माँ वीणापाणि के सान्निध्य में पड़े दो शिष्य इसी दिल्ली शहर में दीपोत्सव के शोर-शराबे में अपने घर की यादों का काढ़ा पीकर सो जाने को मजबूर थे क्योंकि गाँव में प्रेम की चाश्नी में डुबोये रखने वाले रिश्तेदार इस शहर के मिज़ाज में ढल-से गए, क्योकिं पड़ोसी का तमगा थामे बैठी आबादी को अपने व्हाट्सएप्प संदेशों से ही फ़ुर्सत नहीं मिली, क्योंकि बाबा की शामों में भगवान का दर्जा पाने वाले गुरुजन भी अपनी निजी जीवन के वज़न में दबे रह गए, क्योंकि सबके लिए बैठाई गयी सरकार के लिए तो विद्यार्थी अस्तित्व में ही नहीं हैं। बस वो कमरे में रोज़ भ्रमण पर आने वाली छुछुन्दर ही थी जो आयी, और उनके साथ प्रसाद साझा करती गयी। शायद किसी बिल्ली ने पंजा मारा था उसे। दाएं तरफ का पिछला पैर शिथिल हो चला था तथा पीठ पर उस तरफ कुछ खरोंच थी। रात के साढ़े ग्यारह बजे जब बाहर के सभ्य-समाज में विस्फोटकों का शोर जारी था, उसका डरते-बचते आना गाँव के माली चाचा की स्मृति ऊभार कर चला गया।
ये दिल्ली शहर की दिवाली थी जहाँ दिल का तो दीवाला निकल चुका है और एक हमारे गाँव हैं जहाँ आज भी एक पिता अपने दूर किसी शहर में धूल फाँकते पुत्र को यादकर उसके परममित्र पर डाँट के आशीर्वाद निःसंकोच फैला देता है तथा वो मित्र भी उस स्नेह को पाकर, उस डाँट रूपी चादर में लिपटी प्रेम और उम्मीद की शीतलता की अनुभूति कर स्वयं को भाग्यवान महसूस करता है। ये दिल्ली, ये शहर, यहाँ एक नब्ज़ भी दूसरी के प्रवाह पर अपनी अधीरता को रोक ले तो बहुत है।
- सुखदेव।
Friday, 26 October 2018
प्रकृति की द्युति
क्यों पेड़ काटने की खातिर,
तू जन-जन में अलख जगाये।
मानो लूटने पाण्डु-पुत्रों को,
मामा शकुनि जी खुद आये।
वो जूए का लिए बहाना,
राजसभा में गये समाये।
आसन पाते ही मातुल के,
कुंती-तनुज गए चकराए।
सभी सुतों पर छाते ही वो,
नीच सोच पर उतरे आये।
बोलै पाँचों को उकसाकर,
क्यों ना सब पर खेली जाए?
काल का देख के आगत रंग,
मामा मन ही मन हर्षाये।
क्यों ना इसी बहाने इनसे,
प्रतिष्ठा भी छीनी जाए।
भँवर में घिरकर उनके आखिर,
नाँव-पाण्डवी गोते खाये।
फँस उनकी चालों में "धर्मी",
पत्नी पर दी चाल गँवाये।
हुई यही सबसे बड़ी गलती,
हक़ इसका वो कैसे पाएं?
एक नारी के नारीत्व पर,
कैसे कोई भी दाँव लगाए?
गयीं घसीटी वहीं थी देवी,
भीम से भी ना देखा जाए।
शान्त रह गए सहदेव-नकुल भी,
अर्जुन भी बैठे आँख चुराए।
टूट चुकी उस अबला ने फिर,
हार के अपने हाथ उठाये।
तब आकर बंशीधर ने फिर,
पट के झटपट पाट बढाये।
किसी तरह जा बची बेचारी,
जो सबकी ताकत कहलाये।
अंत मे वो ही धूमिल होती,
जाने क्यों बेचारी हो जाये?
सोच ज़रा इसपर ओ भईया!
ऐसे कैसे काम चलाएँ।
आज तो जैसे द्रुपद-सुता-सी,
माता धरती भी चिल्लाये।
हम जैसे निष्प्राण जनों में,
मैय्या अपनी आस जगाये।
शायद कभी उठेंगे हम भी,
देंगे उसका चीर बढाये।
इतने लगा दें दरख्तों को कि,
चहुँ ओर हरियाली छाये।
लेकिन कहाँ हुआ ऐसा कुछ,
हम बैठे जो शीश नवाये।
हाथ जोड़कर करें विनतियाँ,
उनसे जो हँसते ही जाएँ।
"क्यों बनकर तुमहीं दुस्साषन,
वसन पे उनके आँख गड़ाए?"
वो अवनि, बहना बन अपनी;
या भाभी बन बाहर जाए।
दादी-सी झुकती-रुकती या,
सखियों-सी चलती इठलाये।
उसपर तेरी काली छाया तब,
मौत-सी पीछे ही मंडराए।
हम जैसे लाचार जवाँ तब,
कपड़ों में ही दोषों को पाएँ।
क्या ये तरु भी इस तरुणी की,
अबतक अस्मत नहीं बचाये?
फिर काहे तू बूझ-समझकर,
पाप करने को आगे आये?
भूल नहीं इन वृक्ष-पात ने,
हैं सदियों से लाज बचाये।
तेरे भ्रात-तात, जननी-पत्नी को,
शौचालय अब जाकर भाये।
कैसे इतना निर्लज्ज होकर,
देगा तू इनको कटवाए?
जबकि सारी तनुजाओं के,
वस्त्रों का तू प्रहरी कहलाये।
सो अपना जब समय आ रहा,
क्यों ना तुझसे प्रायश्चित करवाएं।
तेरी इन बेड़ियों से सबको,
क्यों मुक्ति दे दी ना जाये।
तू ही है जो अरावली के जख्मों पर,
दिया था परिसर में मुस्काये।
और नदियों को जोड़, रुला कर;
रहता सुरा में सदा नहाये।
तूने ही गाँधी विहार में,
सत्य दबाकर, घर बनवाये।
या भट्टा परसौल में जाकर,
रुपयों से मुजरे करवाये।
तूने ही गंगा-जमुना को,
नालों-से चेहरे दिलवाये।
दक्षिण में कावेरी पर भी,
तूने हीं झगड़े करवाये।
तूने ही तो महँगाई में,
कृषकों के सपने जलवाए।
रोते नन्हें हाथों में भी,
भिक्षा के लोटे दिलवाये।
गाज़ीपुर में भी तूने ही,
कूड़े के पर्वत उठवाए।
जैसे तेरा काम यही हो,
मंगल में दंगल करवाये।
लोकतंत्र में बैठे-बैठे,
जनता का बस ध्यान बंटाए।
और समय पाते ही झट से,
पर्यावरण पे दहशत ढाये।
क्या लगा तुझे, तू ऐसे ही;
अविरल धुन में बढ़ता जाए।
कोई तुझे देखे भी ना,
कोई उंगली भी उठने ना पाए।
माना है काफी सफल रहा तू,
पर बात यहाँ से बिगड़ी जाए।
तेरी उम्मीदों पर जल मढ़ने,
हैं कुछ उन्मत्त आगे आये।
तुझसे तो हमीं टकराएंगे,
जो मूल्यों के अब भी गुण गायें।
तेरी सन्तानों को ही शिक्षित कर,
तेरे कर्मों को देंगे बहवाए।
- सुखदेव।
Saturday, 29 September 2018
स्त्री का दर्द-6- रजोनिवृत्ति
एक दिन मैं भी रुक जाऊँगी,
चलते-चलते थक जाऊँगी।
क्या तुम होगे साथ मेरे तब,
जब मैं चल भी ना पाऊँगी।
हामीं जो भर दी है तुमने,
क्या सच में बात निभाओगे?
या मायावी छाईं-सा,
उस पल ग़ायब हो जाओगे।
छोड़ो उतना जाने भी दो,
थोड़ा पहले आ जाओ तुम।
बस उसी पड़ाव पर साथ निभाना,
जब संग अधेड़ हो जाना तुम।
वो ऐसा वक़्त जब मैं खुद भी,
झुकती-हाँफती-सी आऊँगी।
कुंतल की कालिमा केवल,
अक्सों में अधरंगी ही पाऊँगी।
जो शांत अभी हूँ, उस पल तो;
अक्सर क्रोधित हो जाऊँगी।
धैर्य भी थोड़ा दूर रहेगा,
मैं शंकित होती जाऊँगी।
अश्रु की झाड़ियाँ भी मेरी,
थोड़ी लम्बी करती जाऊँगी।
और भावों की कन्दरा क्यों जाने,
कुछ संकीर्ण दिखलाऊँगी।
कार्य सभी तब तत्परता के,
आफ़त जैसे लहराऊँगी।
और जो पूर्ण नहीं हुए फिर तो,
मैं गफ़लत में फँस जाऊँगी।
"दीना" की आँखों को भी तो,
शायद पहचान न पाऊँगी।
पर एक बार जो झेल गयी सब,
मैं सुगम-सुदृढ़ हो जाऊँगी।
छोटी-सी बातों पर भी,
जो मैं कुपित हो जाऊँगी।
क्या तुम वो सब भी समझोगे,
जो मैं बतला ना पाऊँगी।
देखो कोई इसमें मेरा हाथ नहीं,
यह भी निर्माण ज़रा-सा है।
इन बदलाव की कड़ियों में कुछ,
अंश प्रभु का धरा-सा है।
जब रुक जाएँगी वो तकलीफें,
शायद उससे कुछ हो आराम।
पर फिर वो एहसास न होगा,
जो हर बार है करता त्राहिमाम।
मैं हरपल लड़ते आयी हूँ,
उम्मीद है वो सह जाऊँगी।
रिश्तों में कुछ पद बढ़ेगा,
मैं बहु से सास हो जाऊँगी।
बस तुम जो मेरे पास रहोगे,
मैं खुद को सुलझी पाऊँगी।
ओ मनके! मेरे हृदय-गर्भ के,
तेरे साथ से मैं तर जाऊँगी।
- सुखदेव।
Tuesday, 25 September 2018
स्त्री का दर्द-5- महावारी
अहो मनके! तुम कहते हो कि,
चाँदनी होना है आसान।
कहो भला क्या सह पाओगे,
हर एक माह अवसान?
भले सदा ही मदमाती है,
चेहरे पर मेरे मुस्कान।
पर मेरा अंतर ही जाने,
खिंचता रहता जो दर्द कमान।
तुमको क्या बस निकल पड़ो,
जहाँ भी ले जाये सम्मान।
मुझको तो सालों भर ही,
तारीखों का रखना पड़ता ध्यान।
बहुत हुआ जो तुमको शायद,
जानी पड़ जाए वही दुकान।
मेरा क्या? जब ग़लती से भी,
थैले से दिख जाए "सामान"।
जिसमें मेरा अधिकार ही नहीं,
जो ईश्वर की देन तमाम।
इसको भी क्यों इतना निम्न,
देखे वो मन्दिर का भगवान?
कहते हो तुम नया सृजन है,
प्रकृति का सार्थक निर्माण।
क्यों तुम ही इसे न धारण कर लो,
और रक्खो सृजनता का सम्मान।
क्यों मुझे ही हो यह सब दिखलाते,
तुम मानव में पुरुष-प्रधान।
और जब इसमें तुम्हारा हाथ ही नहीं,
क्यों करते हो जारी रहते फरमान?
मुझको पीड़ा का नहीं भय,
उसे सहने का शायद अभिमान।
पर कौन तुम्हें यह हक़ देता है,
करो हमारा इससे नुकसान।
नहीं ये बेड़ी पग-बाधा-सी,
समझो बस एक सरल प्रमाण।
अबला के अबला होने की,
शुचितापूर्ण ही तू इसको जान।
कामाख्या देवी का जैसे,
हो पूजते तुम रक्त-दान।
थोड़ा वैसे ही इसे भी समझो,
जो दे जाए एक नया प्राण।
सो चुप भी रहो अब बन्द करो,
अपना ये अविरल-व्यर्थ उदान।
तानों-बानों से नहीं रुकेगा,
मेरे सपनों तक मेरा उत्थान।
- सुखदेव।
Saturday, 22 September 2018
स्त्री का दर्द-4- पीड़िता का अपराधीकरण
संघर्षों के मदिरालय में,
सबसे सस्ता जो जाम उठा।
द्रवित हुआ मन पूछता है,
क्यों उसपर तेरा नाम उठा?
सभी अधम थे, सभी नीच भी;
सबपर दुष्कर ने राज किया?
फिर भारी सभा में बैठे ही,
क्यों सब ने ऐसा काज किया?
तुम शुचिधर-सुंदर, थी सुशील;
इस पर चंचलता बनी कील।
हुआ सूर्यपुत्र का भी छन्न शील,
वह स्वर्ण आर्य वहाँ हुआ नील।
जो दुष्ट अनुज ने केश तुम्हारे,
खींच तुम्हें झकझोर दिया।
तुम करती भी क्या जब भरी सभा ने,
मुख इस दुष्कर्म की ओर किया।
वहीं तुम्हारे धर्मराज थे,
वहीं था तेरा निश्छल साईं।
वहीं बगल में प्राण-नाथ भी,
वहीं थे दोनों कोमल भाई।
वहीं थे सारे परम-प्रतापी-
पराकाष्ठा-पर के पैर।
वहीं सन्न था परशु-शिष्य,
बाँधे अपने अंदर बैर।
सारे तो थे बौराये-से,
धर्म-द्युति परवान चढ़ी।
उन सब में बस वही एक था,
जिसने बदले में शान गढ़ी।
तुम बोलो अब करती क्या,
जब ऐसे वीर पड़े मजबूर।
जिन्हें प्रतिकार की चाहत थी,
वो अंतर में थे होते चूर।
ऐसे में तुमने प्रभु बुलाकर,
था अच्छा-सा काज किया।
उनकी महिमा की छाया में ही,
तुमने आखिर तक राज किया।
क्या हक़ था तब परमपूज्य को,
जिससे वो तुम पर चाल चले।
क्या मानु! वो शैशव में;
थोड़ा-सा जैसे बहक गए।
कब तक नारी, हे शशिप्रभा!
कुछ पन्नो-पत्रों में तोली जाएगी?
कब तक आएगा वो समय कि जब,
दुनिया उसका सच्चा मोल समझ पाएगी?
हो रामराज में सीता माँ,
या द्वापर में हो द्रौपदी।
या कलियुग में निर्भया,
क्यों अबला पर ही ज़िद गुज़री?
ये बातें जो थर्राती हैं तुरंत,
देती हैं सीख महत्वपूर्ण अत्यंत।
उस पुरुष रूप के राक्षस का,
केवल माँ अम्बे, करती हैं अंत।
- सुखदेव।
स्त्री का दर्द-3-वैवाहिक बलात्कार
प्रणय-सूत्र में पिरो-पिरो कर,
उसने मुझको लूटा था।
मैं तो बस चुपचाप पड़ी थी,
जब ये मेरा दिल टूटा था।
आशाओं की नैया में तब,
छिद्र-छिद्र ही छूटा था।
सारे रिश्ते दूर खड़े थे,
जब वह वहशी टूटा था।
शर्मायी-सकुचाई-सी मैं,
उसका व्यभिचार ही फूटा था।
भावों को कोई जगह ना मिली,
करम हमारा फूटा था।
अहो मनके! तुम देख सको तो,
बूझो क्यों "मन" टूटा था?
वधु हुई जो वैसे वर की, मेरा;
सत्य भी जिसको झूठा था।
मेरी शुचिधर-काया मलिन की गई,
तन विधियों से उसका धूता था।
अब प्रणय ना रहा, "सूत्र" छिन्न था;
बस, अंश शिशु-सा छूटा था।
- सुखदेव।
स्त्री का दर्द-2-घरेलू हिंसा
रात चाँदनी रही,
बात चाँदनी रही।
भले ही काल, काल हो;
साथ चाँदनी रही।
सदैव ही निकट रही,
चाँदनी लिपट रही।
वो हर घड़ी अतीत के,
प्रेम में सिमट रही।
परंतु व्यर्थ ही रही,
कभी निरर्थ भी रही।
वो सोच से गिरों के बीच,
सदा "अनर्थ" ही रही।
बदन के मार सह रही,
वो रोज़ हार सह रही।
कुल-निर्लजों के हाथ,
"निज-उद्धार" सह रही।
थी जानती नहीं रही,
थी मानती नहीं रही।
मनो-वियोग में भी थी,
रार ठानती नहीं रही।
वो शांत भी बनी रही,
प्रशांत भी बनी रही।
वो आग के स्पर्श पर,
अशांत भी बनी रही।
वो देखती ही रही,
वो सेंकती ही रही।
घोर अत्याचार में,
वो माथ टेकती रही।
प्रभु को पूजती रही,
ख़ुदी से जूझती रही।
वो पूर्व-प्रीत-मोह में,
ज़वाब ढूँढती रही।
वो अब नहीं चपल रही,
न सोच में सरल रही।
वो एक घाट बाद से,
स्वभाव में गरल रही।
वो अंत तक सबल रही,
कभी नहीं अबल रही।
सुता के हित जो बात थी,
सदा ही वो प्रबल रही।
- सुखदेव।
स्त्री का दर्द-1- हिय-कसक
अकेले हम भी रहते हैं, अकेले तुम भी हो रहते।
बग़ावत हम भी करते हैं, बग़ावत तुम भी हो करते।
समय की आँधियों में जो, चला करती हवाएँ हैं;
अकेले हम भी सहते हैं, अकेले तुम भी हो सहते।
शराफ़त हम भी रखते हैं, शराफ़त तुम भी हो रखते।
नज़ाकत हम भी रखते हैं, नज़ाकत तुम भी हो रखते।
परंतु, गैरों के उलाहनों से बचने की कवायद में;
हिफाज़त हम भी करते हैं, हिफाज़त तुम भी हो करते।
शरारत हम भी करते हैं, शरारत तुम भी हो करते।
हरारत हम भी भरते हैं, हरारत तुम भी हो भरते।
छिपी दुनिया की गद्दारी में, डूबी मुस्कुराहट में;
बनावट हम भी धरते हैं, बनावट तुम भी हो धरते।
ये चाहत हम भी रखते हैं, ये चाहत तुम भी हो रखते।
विरासत हम भी रखते हैं, विरासत तुम भी हो रखते।
ओ मनके! बीतती बातों की जलती-सी चिताओं में,
तिजारत हम भी रखते हैं, तिजारत तुम भी हो रखते।
हिमायत हम भी रहते हैं, हिमायत तुम भी हो रहते।
हिमाकत हम भी रखते हैं, हिमाकत तुम भी हो रखते।
भले ना उम्मीद हैं, पाने में हम दोनों हीं;
मोहब्बत हम तो करते हैं, मोहब्बत तुम नहीं करते।
- सुखदेव।